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भारत की दुर्गति और भविष्य

 

भारत की दुर्गति और भविष्य

भाग 1 :

सन् 2001 में मैंने पहली बार 'लार्ड आफ द रिंग्स' पढ़ी। फिर अगले कई साल, कई बार पलटी। मानवीय और राक्षसी शक्तियों के बीच लड़ाई के रोमांच से आगे जाकर बहुत गूढ़ बातें दिखने लगी थीं जो शायद सिर्फ लेखक टोलकिन ही संसार को बता सकते थे। अधिकतर इतनी गूढ़ थीं कि फिल्मकार तक ने छूना भी नहीं चाहा।
उनमें से कुछ थीं:-
- क्यों 'शक्ति या सत्ता ' का रिंग, एक संसार से प्रेम करने वाले व्यक्ति के लिये असरहीन चीज है। वही रिंग, जो बाकी सब द्वारा पहनते ही अपना असर कर देता है।
- बिना उस रिंग को मिटाये , बाकी सब मानवीय जीत और राक्षसी हार, सिर्फ छलावा है। यह वैसा ही है जैसा रावण का वध सिर्फ नाभि भेदने पर ही होगा।
- किस प्रकार shire यानी सरल सीधे व प्रकृति की गोद में पलकर खुश रहने छोटे मानवों (hobbits) का प्रदेश, उनकी अपनी छोटी मोटी महत्वाकांक्षा व लालच के सहारे, धीरे धीरे संसाधन बर्बाद व खराब कर, विकास करने वाले दुर्जनों के हत्थे लगता जाता है। और एक दिन एक अंहकारी जादूगर (sharky) वहां का शासक बन जाता है।
गांव व पूरा क्षेत्र जो पहले सरल आचरण व संस्कारों से चलता था , वह 'नियमों और कानूनों ' से चलने लगता है जिनका उद्देश्य डरा कर दबाना और उगाही करना रह जाता है। hobbits, आपस में ही लड़ते चिढ़ते रहते हैं और उधर संसाधन पर दुर्जन अय्याशी करते हैं।
सुंदर परंपरागत घर खत्म होकर एक जैसे पंक्तिगत दड़बे बन जाते हैं, नदियां मैली व खाली हो जाती हैं। जिनके पिता कभी तेल पिरोते थे, उनका बेटा उसी जगह, विकासशील बन एक तेल की फेक्टरी में मशीन चलाता है।
अधिकतर hobbits, शुरू में इस आ रहे बदलाव से या तो खुश होते हैं या फिर संवेदनहीन बने रहते हैं। जब परेशान होने लगते हैं तो उनको लगता है अब बहुत देर हो चुकी।
यहीं पर लेखक दर्शाता है कि कैसे shire को वापस जल्दी ही खुशहाल बना दिया गया। लेकिन उससे पहले hobbits को एक निर्णायक मन बनाना पढ़ा और shire बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ी।
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Tolkein के सुन्दर Shire की कल्पना में मुझे भारतीय जीवन शैली की झलक दिखी। सन् 2005 तक मैंने भारत आकर वनग्राम में रहकर काम करने का मन बना लिया।

भाग 2 :
तो shire को बसाने व बचाने हेतु, 2005 से मेरी भारत यात्रा शुरू हुई जो आज तक जारी है। वनग्राम में निवास, व्यवसाय, आदि सिर्फ भौतिक आवरण कहे जा सकते हैं।
सतपुढ़ा की तलहटी में बसे एक वनग्राम में स्थायी जगह ली ही थी कि नियति कुछ और भी तमाशा दिखाना चाह रही थी। मन में पाश्चात्य विकास का माॅडल बसा था जिसमें अर्थशक्ति का लक्ष्य ही सर्वोपरि होता है। उसने काफी उलझाया, कोर्ट कचहरी सढ़क पर संघर्ष करवाया। 3-4 साल लगे पर इसने मुझे व्यक्तिगत रूप में मायावी संसाधन से विहीन बनाकर फिर ईश्वर प्रदत्त संसाधनों की पहचान करवायी। इसमें प्रकृति, भावात्मक रूप से जुड़े लोग, नैतिक मूल्य भी शामिल हैं।
2010 तक काफी भ्रमण किया। आते आते मुझे एक होड़ समझ आने लगी।
shire तो कहीं मिला नहीं, उल्टे सब दूर संसाधन को सहेजकर चलने की प्रवृत्ति समाप्त हो रही थी।
भारत क्या है, यह समझना नवागत के लिये मुश्किल होता है क्योंकि अर्थव्यवस्था, राजनैतिक व्यवस्था व सामाजिक व्यवस्था, तीनों ही खण्ड खण्ड हो गये हैं। उसपर शिक्षा जनित पूर्वाग्रह और जढ़ अंहकार।
India या हिन्दुस्तान और भारत - दोनों में फर्क समझ आने में काफी समय लगा। जहां भारत का आधार सम्पदा, संस्कृति और सभ्यता में अद्वैत रहा, वहीं india के विचार में इनको खण्ड खण्ड कर देखना जरूरी था। तभी सम्पदा को क्षणिक संसाधन बना, संस्कृति से अलग किया जा सकता था।
India, एक परजीवी सोच रही, जबकि भारत एक स्वयंभू, समग्र सोच है।
अक्सर 'india' का विचार, एक उदारवादी मानवता का चोगा पहन आता है, और 'हिन्दुस्तान' का विचार, एक सहिष्णुता, संरक्षण और सहेजने का चोगा पहन आता है, परन्तु सम्पदा, संस्कृति और सभ्यता में अद्वैत की मांग रखते ही इन दोनों विचारों का मुखौटा उतर जाता है। दोनों के पीछे सिर्फ शोषण होता है।
इसीलिये भारत की समझ बहुत जरूरी है।
परन्तु पीढ़ी दर पीढ़ी, यह समझ आगे नहीं बढ़ पायी।
अब यह हालहै कि कोई हो, शहरी या ग्रामीण या आदिवासी या पहाड़ी, या गंगा जमुना किनारे बसे हों, लगभग हर व्यक्ति को यह तीन में से एक आस पैदा हो गयी थी :-
1. परिवार में एकाध सदस्य को तो शहर में अच्छी नौकरी मिल जायेगी,
2. नयी मशीनों, रसायनों के सहारे अब उत्पादन बढ़ा कर ज्यादा कमा लेंगे,
3. ऊधारी या अनुदान से सहारा मिल जायेगा।
देशभर में एक बढ़ा व नया वर्ग बन गया जिसको और अधिक सटीक शब्द के अभाव में परजीवी कह रहा हूॅ।
इस परजीवीकरण का उलट करने की ही दिशा में अरण्यानी वन का कार्य चालू हुआ।

भाग 3 :

पहले व दूसरे भाग में वर्णित दुर्गति को समझने के बाद, कई सवाल आते गये।
पहला था कि क्या इसको अनदेखा कर, शोषक वर्ग में अपनी मजबूत स्थिति को ध्यान में रखकर, चुपचाप जीवन को नशे की तरह जिया जाये?
चिंतन किया तो लगा कि एक दिन तो प्रकृति यह नशा उतार ही देगी। हम नहीं तो बच्चे उस दिन को देखेंगे।
और चिंतन किया तो लगा कि हम किसको खत्म कर रहे हैं? भौतिक रूप से तो नदिंयों, वनों व प्रकृति के अन्य घटकों को, परन्तु उनसे भी तेज हम संस्कृति को ही खत्म किये जा रहे हैं। तो फिर वह भारत भी क्या बचेगा जिसका ख्याल ही मन में उमंग भर देता है।
पहला सवाल किनारे हुआ तो दूसरा सामने था - इस दुर्गति की विशालता व बहुआयामी संहार से घबराया जाये कि नहीं?
उस समय यानि पंद्रह साल पूर्व का सच तो यह था कि मैंने आंखे बंद कर लीं। इसपर सोचने से ही इंकार कर दिया यह मानते हुए कि सवाल कठिन है।
बस एक खूंटा बांध लिया कि जो हमारे बस में व नियति में है, उससे अधिक प्रयास करेंगे। यह लाईनें मुझे प्रेरित करती थीं:-
Do not go gentle into that good night,....
Rage, rage against the dying of the light.
सच पूछो तो ऐसे ऐसे घोर विघ्न आते रहे जिनसे संघर्ष के भौतिक निशान तो अब मिटते जा रहे हैं परन्तु बौद्धिक संकेत दिख रहे हैं।

खैर तीसरा सवाल था कि कहां से चालू किया जाये?
मन में खाद्यवन का मानचित्र था तो इसी में गुम होना आसान लगा। धुन ऐसी लगी कि डेढ दशक का पता नहीं चला। हजारों एकड़ पर कार्य से ऊब नहीं हुई, और न ही भविष्य की चिंता।
परन्तु समय के साथ दुर्गति का बहुआयामी हमला, समझ आने लगा। चक्रव्यूह के हर कदम पर एक नयी महाबली समस्या खड़ी होगी।
आप वन तो उगा लेंगे लेकिन बाजार के लालच उसपर हमला करेंगे।
लोग डीजे बजा बजा कर जीव जन्तुओं को भगा देंगे।
शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा कि आदिवासी बच्चों तक को वनों का सामाजिक महत्व नहीं पता।
ऐसे में कार्य तो चलता रहा परन्तु दूसरा प्रश्न हमेशा अनसुलझा दिमाग में रहता था।
बहुत सारे लोगों से मिलना हुआ जो इसी तरह के सफर पर हैं, और इन्हीं प्रश्नों के कारण ही इस सफर पर हैं । कोई कारीगरों को मदद कर रहा है, कोई शिक्षा के अलग तरीकों पर कार्य, कोई भारतीय स्वास्थ्य पद्यतियों पर, कोई खाद्य ज्ञान पर, आदि।
यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि लगभग हर व्यक्ति ही मन के एक कोने में इन्ही प्रश्नो पर, अपने दायरे में और समझ अनुसार प्रयास कर रहा है।
यह मुझे दिखाई देने लगा।

तो अगला प्रश्न आ गया - कि जब इतनी मानवीय सज्जन शक्ति सजग तौर पर कार्य कर रही है तो उसका असर क्यों नहीं होता? नदियां मरती जाती हैं, खेत विषैले होती जाते हैं।
उत्तर गुरुओं से ही मिला कि यह कार्य खण्ड खण्ड में हो रहा है। फिर उसको बचाये रखने के लिये हर व्यक्ति का मन उसको एक सुरक्षात्मक आवरण से ढ़क देता है। इनको जोढ़ पाने में ही समाधान छुपा है।


चौथा व अंतिम भाग
तो अब पहला सवाल यह रहा कि इस खण्ड खण्ड शक्ति को कैसे जोड़ा जाये जिससे यह प्रतिकार कर सके?
यह जुड़ सकती है कि नहीं , इसको लेकर मुझे कोई संदेह नहीं रहा। भारत तो ऐसे जुड़ाव की ही सभ्यता रही है।
इतिहास में अनेक अवसर रहे हैं व यह प्राकृतिक जीव को समझ है कि खतरे को महसूस कर वह अपना स्वभाव तक बदल लेता है।
कुछ समय पहले ही जब बाघ प्रजाति पर भारत में विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा था तो एक अनोखी घटना देखने को मिली। कुछ अनाथ हुए शावक, जो अन्य बाघ के थे, उनको एक अन्य व्यस्क बाघ, मार देने की जगह, संरक्षण कर पाल रहा था। यह न उसका स्वभाव है और न इसके लिये वह बाघिन की तरह परिपूर्ण होता है।
फिर भी विलुप्तिकरण का खतरा उसकी चेतना में था।
तो जुड़ाव बढ़ी बात नहीं है। समय समय पर जनमानस एक विचार या कर्म के पीछे आकर खड़ा होता रहा है।
अभी भी अनगिनत प्रयास व प्रयोग चल रहे हैं कि कैसे भारत को मूल प्रकृति या नैसर्गिक ताकत या गुणों के आधार पर बचाया जाये। गांधी, टैगोर, विवेकानंद, गायत्री परिवार, आदि आदि कितने शक्तिशाली विचार समाज में फैले, फिर समय के साथ स्वरूप बदल गये।
यही हश्र या भविष्य मैं हर वर्तमान प्रयास का देख रहा था। कारण समझने की कोशिश की तो लगा कि जब तक पारदर्शिता नहीं होगी, और संसाधनों और संगठनों पर स्वामित्व की प्रवृति रहेगी तब तक यह रास्ता हार की ओर ही ले जायेगा।
कारण स्पष्ट है, पाश्चात्य मायाजाल का मूल ही व्यक्तिवाद व असुरक्षा की मानसिकता है जो इन्होंने शिक्षा के माध्यम से हर व्यक्ति में पहुंचा दी है।
तो हमने अपने प्रयोग यानि अरण्यानी में दो सिद्धांत और क्रियान्वित कर दिये - पूरी पारदर्शिता व गांधी का संरक्षक यानि custodian वाला सिद्धांत।
इससे अनोखी शक्ति महसूस हुई। पूरा भारत ही जैसे जुड़ सकता हो।
( इस जगह एक बात मैं बोलना चाहता हूॅ। भारत को भौगोलिक लकीरों से आगे जाकर एक सोच व संस्कृति के रूप में देखें तो यह जुड़ाव की चाहत व जरूरत विश्व भर में दिखाई देती है। )
फिर एक सवाल उठा- क्या इससे भी हम मायावी शक्तियों को हरा पायेंगे? उनके पास मुद्रा अर्थ नामक एक ऐसा शस्त्र है जो अल्पकाल के लिए ही सही, लेकिन हर अच्छे प्रयास को भटका कर खत्म करने का सामर्थ्य रखता है।
और इस काल में हर सुख, सुरक्षा, संपत्ति का पैमाना, एक बड़ी और परजीवी मानवीय आबादी के लिये, यही मुद्रा रूपी धन हो गया है।
राजनीतिक बल, आर्थिक बल, आदि, सब जब इसी पैमाने पर तुल रहे हैं जिसका आधार मुद्रा है।
और यह पैमाना यथार्थ में तो भारत के अधीन ही नहीं रहा है। कहने को अपनी मुद्रा है , परन्तु क्या यह मुद्रा और इसके संरक्षक, भारत की प्रकृति और संस्कृति के प्रतीक हैं या फिर किसी पाश्चात्य मायावी सोच और उससे जुड़ी संस्थाओं के?
गंगाजी के किनारे बैठा यही सोच रहा था कि कुछ भी करें, पर यदि माध्यम अर्थ होगा और उसका पैमाना ऐसी मुद्रा जो ऐसे लोग, कार्य और संस्कृति को संरक्षित ही नहीं देती, तो कैसे यह लड़ाई जीती जाये?
बहुत ही सरल शब्दों में समझाएॅ तो सिक्का तो हमारा होना ही चाहिए। हमारा अस्त्र हमारी आवाज समझे।
तभी भारत उठ सकेगा। तभी सब सज्जन शक्ति लड़ पायेगी।
ऐसा कैसे हो? प्रथम दृष्टया तो यह असंभव ही लगा। जो योद्धा हार मान लिये हैं , उनको भी यही कारण समझ आया।
सोचता रहा तो समझ आ रहा है कि यह उतना दुर्गम नहीं । लोकतंत्र चलित राजनीति, यदि भारत को सर्वोपरि रखे तो और भी आसान है। लेकिन उसके असहयोग या विरोध के बिना भी यह दुर्गम नहीं।
चक्रव्यूह से निकलने की कई विधि होती हैं। एक मुझे समझ आयी तो उस पर क्रियाशील हैं, परन्तु उस पर यहां नहीं लिखूंगा।
अपने अनुभव से बस तीन सूत्र , मार्गदर्शन के लिये लिख रहा हूॅ :-
एक, जो भी कार्य योजना हो, वह भारत की प्रकृति और संस्कृति के अनुसार हो।
दो, सज्जन शक्ति का उद्देश्य, पारदर्शी संरक्षक का हो, जो भावना से निकलकर नियम व आचरण तक जाये।
तीन, अस्त्र शस्त्र अपने हों और ऊपर की दोनो शक्ति समाहित किये हों । वर्तमान में मुद्रा ही राक्षसों का मुख्य अस्त्र है; किसी और काल में कुछ और होगा।

भारत का हमारे कालखण्ड का भविष्य भी यही तय करेंगे। समझ कर क्रियान्वित कर पाये तो स्वर्णिम काल होगा, नहीं कर पाये तो आगे की 2-4 पीढ़ी के लोग, एक दूसरे को नोच कर ही जीयेंगे।