(Please note: The Hindi version has been created using translators. I have edited and improved the version in first effort. I you have any specific suggestions or want to rewrite the text, please let me know. )
भारत दर्शन
भारत दर्शन
1. आदिवासी झोपड़ी में रात
मेरा घर, यह छोटा सा गाँव, पलकमती नदी के ठीक पीछे स्थित है और घने सतपुड़ा के जंगलों से लगा हुआ है। यह लगभग चालीस झोपड़ियों की बसाहट है।
आज वसंत ऋतु की अमावस्या है, विशेष रूप से अंधेरी रात, जो दुनिया से आ रही खबरों से और गहरी हो गई है। हम अनिश्चित समय के सामने खढ़े हैं।
महुआ शराब का लालच और साथ में अमावस पर तारों को देखने की तैयारी हुई। अशोक की कुटिया के बाहर चारपाई लगाई गई। इसके अलावा, पास ही आग में बैंगन भूनने की एक मीठी गंध आ रही है।
यहाॅ सालों हो गये लेकिन मेरे किसी के यहां जाने की जगह को अभी भी एक विशेष अवसर के रूप में लिया जाता है। इसलिए अशोक ने जल्दी से बाटी और बैगन भरते की योजना बनाई।
मैं अशोक और दो अन्य आदिवासियों को बताता हूं कि मैं ऊपर क्यों देखता हूं, "देखो, वह उज्ज्वल गुरु या ब्रहस्पति, पृथ्वी पर जीवन का रक्षक है। ऋग्वेद ने यह हजारों साल पहले बताया था लेकिन वैज्ञानिकों ने पुष्टि अब जाकर की।
वे इस बेकार की बात चुपचाप सुनते हैं, पर अधिक महुआ सेवा के साथ उनका स्नेह बढ़ता जाता है। यहां मैं सभी के लिए एक पहेली हूं - यहां के जीवन को महसूस और विचार करता किसी और से ज्यादा, और ऐसे विचार हैं जो दूर देखने की कोशिश करते हैं।
वे नहीं जानते, लेकिन सालों से जब मैं कमजोर था, मुझे डर रहा कि एक दिन मानव लालच इन अंतिम बची सुन्दर बसाहटों को भी चपेट में ले लेगा। हमेशा मुझे दयालु नौकरशाहों या व्यापारियों की दृष्टि से डर लगा। उम्मीद थी तो अंधेरे और अंतहीन ब्रह्मांड से ।
अब 15 वर्षों से यही मेरा जीवन है - पौधों को इस हद तक उगाया कि अब हमारे पास एक जंगल है ; तारों और मौसमों को देखते रहना और समझना कि वे हमारे काम को कैसे देखते हैं, किताबें और दर्शन पढ़ना, मानव जीवन और महसूस करने के लिए दूरदराज के गांवों, नदियों की यात्रा करना।
2. इस कुटिया तक का सफर:
मैं यहाँ कैसे पहुॅचा, यह भी मेरी समझ में किसी नियति से कम नहीं है।
जिस उम्र में मन, बाहरी दुनिया का पता लगाने के लिए चंचल होता है, उस समय शिक्षा प्रणाली ने मुझे भी अन्य लोगों की तरह अपना बना लिया था। इसने हमें शरीर की सीमाओं को, चेतना की कोमल ध्वनि को या दर्शन के गहरे सवालों को अनदेखा करना सिखाया। इसकी बजाय, इतिहास, भूगोल आदि विषय थे, और फिर मेरे जैसे दिमागों को खुश करने के लिए असीम गणित और विज्ञान की आभा थी। मुझे याद नहीं है कि प्रकृति के साथ जुड़ाव या बुनियादी संरचना जैसे गहरी समझ वाले विकल्प ही थे।
उस अंतर को भी भरने के लिए, नियम पुस्तिकाएं, नैतिक संहिता, मूल्य प्रणालियां थीं - और प्रत्येक स्कूल मालिकों के अपने रंग के अनुसार इसे अमली जामा दिया था।
इसलिए, प्रकृति से असीम दुनिया की समझ से रहित, मेरी यात्रा के पहला हिस्सा विशेष रूप से बाहरी सफलता पर केंद्रित था, और इसका मतलब था दुर्लभ संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा - समय, किताबें, कॉलेजों या ट्रेनों में सीटें, फिर मुनाफा और प्रतिष्ठित पद।
जो निपुण हो जाते हैं उनके लिये तो यह एक ताश का खेल है - यह तब तक रोमांचकारी है जब तक एक अगला खेल है, और जब तक दृष्टि में एक अधिक सफल व्यक्ति है जिसे हराना है।
जो कम निपुण या भाग्यशाली रहते हैं, उनके लिए इसमें कोई रोमांच नहीं है लेकिन बाहर निकलने का डर है। इस डर से खेल में बने रहने के लिए मजबूर रहते हैं।
मैंने अच्छी मेहनत से और कठिन दौड़ लगाई थी, और मानसिक सूची में दर्ज कई चीजों को हासिल कर दिया था- पांच सितारा होटल, उड़ानें, सप्ताहांत टेनिस क्लब, वेगास में जुआ… इसलिए मैंने चुपचाप उनकी असीम प्रकृति और अपर्याप्तता को स्वीकार कर लिया और अमेरिका में एक अर्थशास्त्र पाठ्यक्रम शुरू किया। और साथ में दर्शनशास्त्र भी पढ़ने लगा।
2001 में, मेरे दिमाग में एक सरल आर्थिक विचार प्रवाहित हुआ। मैं एक (डॉलर) करोड़पति बनना चाहता था, और उसी प्रकार मैंने यह मान लिया जो पहले से नहीं हैं, सभी वही बनना चाहते थे।
एक अच्छा मानवीय संसार यदि सबको यह अवसर देता है, तो दुनिया में लगभग 1000 अरब के नोट छापने होंगे। लेकिन यह तो सरल है। हालाॅकि अर्थशास्त्री ऐसे नोट छापने को मूर्खतापूर्ण बोलेंगे क्योंकि यह बिना संसाधनों के समर्थन पर होगा।
लेकिन वैसे भी विश्व में यही हो रहा था और जारी रहेगा। मैंने अभी सोचा है कि वायरस का प्रकोप एक भी और ऐसा अवसर है।
लेकिन छप रहे पैसे से इतना खरीदने लायक संसाधन कहां हैं? और बिना कुछ खरीदने की क्षमता के, पैसा एक भयानक बेकार हीन भावना छोड़ देगा।
यह बाज़ारों के लिए एक समस्या नहीं थी - वहाँ काल्पनिक सेवाएँ हैं, और अधिक सृजित की जा सकती हैं - उदाहरणतः कानूनों को बनाने से ही यदि हमारे पास 5 प्रकार के वकील हैं, वहाॅ 10 प्रकार हो सकते हैं।
इसी तरह वित्तीय साधनों को खपाने के लिये बहुत सपने हैं। चाॅद पर एक संपत्ति, या फिल्म के पहले दिन पहले शो , या फिर वो अगली सुपर डिग्री, या वह टाई जो आपके आगमन को थोड़ा अलग दिखायेगी ... सूची पहले से ही असीमित है और बहुत बढाई जा सकती है।
ये अंतहीन सामान या सेवायें, एक सामाजिक सेवा के बराबर हैं क्योंकि वे समाज सेवा करने वालों की तुलना में कहीं अधिक मनुष्यों को अपने कब्जे में रखते हैं।
इस सोच मुझे यह अस्थायी रूप से राहत दी कि सभी मनुष्य करोड़पति हो सकते हैं, यदि सबका मन सच और सरलता से दूर, अंतहीन सामान या सेवायें पर केंद्रित रहे।
लेकिन इस नश्वर शरीर को उस मानसिक बाहरी स्थान पर रहने के लिए, थोढ़ी भौतिक या वास्तविक संपत्ति की भी तो आवश्यकता होगी?
अधिकांश भौतिक उत्पादों को प्रकृति से ही आना होगा, चाहे वह निर्मित हो या नहीं। इसलिए करोड़पतियों को करोड़पति के रूप में उढ़ते रहने और उनके बच्चों के भी करोड़पति बने रहने का एकमात्र तरीका है कि सब संसाधनों का नवीनीकरण किया जाये और बार बार पूरी तरह से बहाल किया जाये।
यही वह जगह है जहाँ मेरी केमिकल इंजीनियरिंग ने मुझे परेशान किया। थर्मोडायनामिक्स मेरा पसंदीदा विषय था। इसके नियम अर्थशास्त्रियों के लिये एक तरह का दुःस्वप्न हैं। आप लगातार पुनर्नवीनीकरण चाहते हैं तो इसमें अंतहीन ऊर्जा चाहिये है!
परंतु यह संभव नहीं है, और मेरे जैसे व्यक्ति भी जो कि प्राकृतिक जीवन की महत्ता अनुभव करते हैं, उनको भी यह बात आसानी से नहीं स्वीकार्य होती है। यह मानव कमजोरी डिज्नी वर्ल्ड समझता है कि और उन छह अनंत पत्थरों के चारों ओर ब्लॉकबस्टर्स का एक असीमित कमाने वाली फिल्म बेच पाता है। दूसरी ओर, अद्भुत 'इंटरस्टेलर' जो भौतिकी की संभावनाओं के करीब आने की कोशिश करती है, एक कम कमाई वाली फिल्म है।
फिर मैं कर्दाशेव ( एक रूसी वैज्ञानिक) को पढ़ा, जिन्होंने पहले से ही इस सवाल पर जीवन बिताया था, और उन्होंने सूर्य को मध्यवर्ती उत्तर बताया। तब मैंने पहली बार सूर्य के बारे में सोचा था।
संयोग से उसी समय, मैं एक पर्यटक की तरह दूरदराज के आदिवासी क्षेत्रों की यात्रा कर रहा था और नदियों और जंगलों की दुर्दशा भी दिखाई दे रही थी, हालांकि मुझे इसकी चिंता नहीं थी।
सूर्य का अवलोकन मुझे पौधों, और नदियों तक ले गया, और जब अंत में मैंने अनिच्छा से मिट्टी पर ध्यान केंद्रित किया, तो मैंने वहां जीवन की एक सुंदर अभिव्यक्ति देखी। जीवन की मूल परत थी- हवा की गुणवत्ता, जल प्रवाह और ऊर्जा को रोकने का प्रबंधन। तत्वों का चक्र, और जीवन के पिरामिड की नींव यहाँ सभी थे।
उसके बाद से मेरी यात्रा इस आंतरिक खोज पर केंद्रित रही है। मैंने महसूस किया कि पहली नज़र में ही इसकी सुन्दरता व समपन्नता व्यक्ति को एक से दूसरे क़दम पर खींचती है। यह पहला कदम कई तरह से हो सकता है - निःस्वार्थ किसी जरूरतमंद व्यक्ति या जानवर की देखभाल, या पौधे की देखभाल, या यहां तक कि एक निर्जीव संरचना।की देखभाल, लेकिन मेरे मामले में यह मिट्टी में जीवन खोजने की कोशिश के साथ शुरू हुआ।
मिट्टी, अन्य तत्वों और जीवन में रुचि कुछ समय में स्वतः वन में रुचि बन गई, और फिर जब सामान्य व्यक्ति को जोढ़ने का सवाल आया, तो यह खाद्यवन बन गयी। मैंने इस काम पर और ऋग्वेद में अरण्यानी अध्याय ने मुझे कैसे प्रेरित किया इस पर एक अलग लेख लिखा है जो पिछले ब्लाग में पढ़ा जा सकता है।
3. इंडिया का स्वप्न
मैंने इस आदिवासी गाँव तक पहुॅचने व उससे जुढी घटनाओं और कहानी को अलग किताब में लिखा है जिसका शीर्षक है: 'द डायरी ऑफ ए स्नेक चार्मर'। चूंकि यह लेख एक अन्य विचार के बारे में है, इसलिए वे विवरण यहां प्रासंगिक नहीं हैं। संक्षेप में कहें तो मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी, और हमेशा के लिए यहां बस गया।
जब मैंने यहां कर्मशील होना शुरू किया, तब उद्देश्य तो पूर्ववत् ही था ...प्रगति करोड़पति लक्ष्य के लिए, पर इस बार साधारण झोपड़ी निवासियों के लिए भी मेरे मन ने यह लक्ष्य लागू किया। मेरे पास एक विकसित भारत का अस्पष्ट विचार था जिसका अभी भी पीछा किया जा रहा था।
भौतिक स्तर पर इस विचार का अर्थ भोजन, कपड़े, आदि के साथ शुरू हुआ, लेकिन जल्दी और व्यवाहारिक रूप में अधिक जंक फूड और पेय, अधिक फिल्में, कपड़े का अधिक सेट, यात्रा, पार्टियों, तेज बाइक आदि के रूप में स्थापित हो गया।
सामाजिक स्तर पर, यह मानव समानता और समान अवसरों के साथ शुरू हुआ, लेकिन व्यवाहारिक रूप में आजादी के नाम पर बाजार की पहुॅच , एकरूप शिक्षा और गैर स्थानीय उत्पादों और सेवाओं की खपत को ज्यादा करने में बदल गया।
'उच्च' जीवन जीने का मार्ग, बाजारों से गुजरता हुआ प्रतीत हुआ; बाजार जैसा चाहता था, वैसा ही हर वयक्ति उपभोग करेगा और जैसा कि हम यहां गांव में उत्पादित करते हैं, वैसा नहीं। यही समृद्धि की कुंजी थी। यदि बाजार गेहूं को महत्व देते हैं, तो हमें खेतों में इसे बनाने के लिए पेड़ों को काटना और भारी मशीनरी चलाना होगा। सरकार और नौकरशाही गरीबी से समृद्धि के लिए इस परिवर्तन में मदद कर रही थी।
एक समय था जब इस झोपड़ी में दो बैल, कुछ जानवर थे। यहाॅ रहने वाले अपना खाना उगाने और स्वयं का घर चलाने में ही व्यस्त रहते थे। अब,
समृद्धि के साथ, इनके पास एक ट्रैक्टर था, वह भी सरकार से अनुदान पर, नए नस्ल के बीज, रसायनों के बैग, जल भंडारण और प्रगति के कई ऐसे प्रतीक हो गये थे। इसके अलावा, बच्चों ने पास के स्कूल में जाना शुरू कर दिया, और गायों को खुले घूमने के एवज में सुदाना व एआई (AI)मिलना शुरू हो गया।
लेकिन दो साल के भीतर, मुझे फिर से बेचैनी होने लगी। मैं पहले ही देख सकता था कि बाजार क्यों और कैसे आक्रामक तरीके से पहुंच रहे थे- ट्रैक्टरों पर नरम ऋण को सब्सिडी कहा जाता था, लेकिन यह एक विशिष्ट वस्त्र विक्रेता की चाल थी - लेबल मूल्य में वृद्धि, और फिर बाद में भुगतान किए जाने वाले कूपन के रूप में कुछ छूट दे।
बीज से लेकर शहरी रेस्तरां तक, बाजार मांग पैदा करने और भारत के वादे को बेचने में मिलकर काम करने में लगा था। इसके वेग ने पहले समाज और फिर झोपड़ी की दैनिक प्रथाओं को बदलने को मजबूर कर दिया था।
लेकिन ये नई प्रथाएं हमारी मूल संपत्ति - बीज, भूमि और पानी को नष्ट कर रही थीं। और मुझे लगा कि जल्दी ही या बाद में, हमारे छोटे झोंपड़े के खेत उसी अनाज को बेचने के लिए दूसरे छोटे और बड़े खेतों के साथ प्रतिस्पर्धा करेंगे। हमारा आर्थिक लाभ कम होता जाएगा और अंतत: लुप्त हो जाएगा। यह हमें क्षतिग्रस्त संपत्ति के साथ छोड़ देगा। मुझे लगा कि यह करोड़पति बनने का स्वप्न कुछ शुरुआती और बड़े किसानों को जरूर आगे ले जाएगा, लेकिन बाकी सब को खराब स्थिति में छोड़ देगा।
अर्थशास्त्र के माध्यम से मैं जो महसूस कर रहा था, भूमि से जुढे किसानों ने पहले ही यह अंतर्ज्ञान से यह देख लिया था। अधिकांश चाहते थे कि उनके बच्चे अध्ययन करें, बेहतर अवसर की तलाश करें क्योंकि यह जमीन प्राचीन काल से परिवार की पीढ़ियों का समर्थन करने के बाद अब अस्थिर दिखती थी।
एक दिन, मैंने अपने आदिवासी गाँव के बच्चों को पढ़ाने का फैसला किया, जो 10 साल या उससे अधिक उम्र के बच्चों के साथ शुरू हुआ।
उनका पाठ्यक्रम परिचित लग रहा था- यह लगभग 30 साल पहले स्कूल में पढ़ी गई बातों से मेल खाता था: वही इतिहास, भूगोल और गणित। मैं उन्हें सब कुछ सिखाने के लिए खुश था जो मुझे पता था। धीरे-धीरे मैंने अधिक वरिष्ठ छात्रों के साथ बातचीत शुरू की- लगभग सभी या तो राजनीतिक विज्ञान या नर्सिंग में स्नातक कर रहे थे, क्योंकि ये दोनों पाठ्यक्रम पास के कॉलेजों में आसानी से उपलब्ध थे।
एक दिन, हमारी कई गायों और कई ग्रामीणों को भी फ्लू हुआ। मौसम के बदलाव पर यह स्वाभाविक था। हालांकि, गांव में व्यवहार का दो अलग पैटर्न थे - युवा लोग पास के सोहागपुर क्लिनिक में चले गए, जबकि पुराने हमारे खेत में आए (क्योंकि हमारे पास बहुत सारी जड़ी-बूटियाँ और प्राकृतिक वनस्पतियाँ थीं), और मेरे साथ कुछ चर्चा के बाद, खस, नीम और तुलसी, स्वयं लिया व जानवरों को भी दिया गया।
सुबह तक बाद वाला समूह ठीक था लेकिन युवा लोग अभी भी गोलियों पर थे।
इसने युवा लोगों के साथ मेरी बातचीत की दिशा बदल दी। समय के साथ, मुझे एहसास हुआ कि शिक्षित लोग जानते थे कि कब हल्दीघाटी के युद्ध लड़े गए थे या राज्य का क्या नक्शा था, लेकिन जानवरों को कैसे ठीक करें, या उनके आंगन या जंगलों में पौधों को पुन: उत्पन्न करने और उनके औषधीय मूल्यों के बारे में कोई सुराग नहीं था।
एक ही समय पर दो वर्ग गांव में रह रहे थे- एक जो अपनी संस्कृति, खाद्य पदार्थों और दवाओं के बारे में जानता था, और एक जिसे अपनी संपत्ति के बारे में कोई सुराग व लगाव नहीं था । दुर्भाग्य से, पूर्व वर्ग हर वर्ष कम हो रहा था। और इस प्रकार ग्राम में धन हस्तांतरण की एक प्रक्रिया चालू थी - अनजानी दूर की संस्थाओं को। शिक्षा और स्वास्थ्य के माॅडल इस प्रकिया के कर्णधार थे ।
इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए, बागवानों से लेकर वन विशेषज्ञों तक, सब इसके दलाल बन गए थे। बीज और उर्वरक खरीदने, गेहूं और सोयाबीन उगाने के लिए ट्रैक्टर और उपकरण किराए या ऋण पर लेने , इत्यादि -सब जगह बाजार ने समझ को दलालों द्वारा दी जा रही जानकारी से ढक दिया था।
फिर मैंने शहरी मॉल व बाजार को देखा - दुकानों में ऐसे खाद्य पदार्थ थे जिनमें आधार के रूप में चीनी या गेहूं या सोया था। उन्होंने शहद, बाजरा या मोटे अनाज या महुआ के आटे और दालों की जगह ले ली थी।
यह स्पष्ट था कि एक तरफ गांव की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई थी, और दूसरी तरफ शहरी उपभोक्ता को ऐसी चीजें खिलाई जा रही थीं, जो जल्द ही चिकित्सा समस्याओं को जन्म देगी, जिससे बदले में और अधिक धन का हस्तांतरण होगा।
शिक्षा, स्वास्थ्य और आधुनिक कृषि की त्रिफला साजिश, गांव व शहरी कमजोर घरों से , स्वेच्छा से, बढे पैमाने पर धन हस्तांतरण के लिए एक आदर्श उपकरण था।
ऐसा इस की पहुॅच है (जिसे मैं बिक जाना कहता हूं) कि लोगों को औद्योगिक खेती / हरी क्रांतियों के लिए पुरस्कार मिले हैं, इस चक्र को चलाने के लिए बड़े पैमाने पर सब्सिडी दी जाती है, और सहायक गतिविधियों के लिए लाइसेंस प्रदान किया जाता है।
मैंने खुद से पूछा - मेरी दिशा क्या थी? मैं अंदर से खाली हो गया था - न तो मैं उस महान भारतीय सपने को छोढ रहा था, न ही मैं इस शोषण प्रक्रिया में मदद करने वाला एक और परिवर्तन दलाल हो सकता था।
4. नयी दिशा
मैंने आधुनिक खेती से खराब हो चुके खेत को बहाल करने का काम शुरू किया। पहले मिट्टी में जीवन की खोज करने के लिए, और फिर खाद्य वन बनाने के पुराने स्वप्न ने आकार लिया। हालांकि एक सूक्ष्म स्तर पर ही सही लेकिन इस कार्य का प्रभाव प्राकृतिक जल प्रवाह और अन्य प्राकृतिक प्रक्रियाओं पर भी दिखाई दे रहा था।
ऐसा प्रतीत हुआ कि नदियों के सूखने से लेकर मधुमक्खियों के छत्ते नष्ट होने तक की कई असम्बद्ध समस्याएँ आपस में जुड़ी हुई थीं।
दूसरी ओर, बाजार ऐसे मुद्दों को हल करने के लिए अधिक विस्तारवादी या हानिकारक प्रस्तावों से भरा था।
उदाहरण के लिए, लुप्त हो रही नदियों के मामले में, कोई मुख्य नदी बेसिन के किनारे पेड़ लगाना चाहता था तो किसी और ने नदियों को आपस में जोड़ने की दलील दी। ऐसै उपाय सुझाने वालों के पास कोई ठोस पुराने उदाहरण भी नहीं थे।
इसलिए अधिक जानने के लिए, मैंने कई नदियों का अध्ययन् किया व यात्रायें भी की । इनमें कुछ हिमालय मूल की और कई सतपुड़ा पर्वतमाला से निकली थी। लेकिन सबकी कहानी वही थी: नदियाँ गहरे तनाव में थीं क्योंकि अधिकांश छोटे फीडर नाले मानसून की अवधि के बाहर नहीं बहते थे । इसका एक कारण मूर्खतापूर्ण पुनः पेढ़ रोपण था क्योंकि उन्होंने मूल पेढों जैसे सागौन आदि को काटकर, बांस या कुछ अन्य पेढ जो कि उस जगह के लिये उपयुक्त नहीं था उनको उगा दिया था। इसी तरह की बात हिमालय की नदियों के साथ अंग्रेजों के समय की है, जब निचले हिमालय क्षेत्र में गैर-प्राकृतिक वनस्पतियों की शुरुआत हुई थी। मूर्खतापूर्ण पुन: रोपण से नदियों को बचाने की समस्या बढ़ गई है।
दूसरा बड़ा कारण औद्योगिक कृषि था। भारी ट्रैक्टरों और मशीनों के उपयोग ने कई जल चैनलों को बंद कर दिया, वहीं दूसरी ओर कृषि के पैटर्न में बहुत अधिक पानी की खपत होती है। ट्रैक्टर और रसायनों का एक और प्रभाव यह है कि पानी के छिद्र बंद हो गए हैं। मानसून में खेतों के ऊपर बहुत अधिक पानी बहता है। पहले के दिनों में, यह नीचे चला जाता था क्योंकि प्राकृतिक मिट्टी एक बड़े स्पंज की तरह होती है। इसे केंचुए ऐसा बनाते हैं।
इसलिए, मुख्य नदी बेसिन में कहीं पेड़ लगाने का कोई नतीजा नहीं है। यह केवल समय की बर्बादी है, जबकि कुछ लोग इससे अच्छे पैसे कमाते हैं। लेकिन समय अब कीमती है।
इससे मुझे नदियों को जोड़ने का मुद्दा याद आया। इसे एक और सपने के रूप में बेचा जा रहा है, लेकिन मेरे अनुभव के आधार पर, यह जनता द्वारा भुगतान किया जाने वाला एक और महंगा चेक होगा। मानसून के दौरान, भले ही आंशिक रूप से अच्छा मानसून हो, हमारे सभी जलाशय भर जाते हैं, और मानसून के दौरान नदियां भरी चलती हैं। सामान्य से कम मानसून में भी बहने वाले पानी की मात्रा एक काल्पनिक विशाल लिंकिंग प्रणाली की तुलना में बहुत अधिक होती है। उसपर यह काल्पनिक लिंकिंग प्रणाली यह मानती है कि स्रोत नदियाॅ ग्रीष्मकाल में भी पूरी बह रहीं है, जब ऐसी कोई भी नदी नहीं है।
इसलिए या तो हम अधिक क्षमता स्टोर करने की सोच रखें या प्रकृति में वापस आने की ताकि छोटी धारायें बहने लगें, खेती पानी की कम खपत करना शुरू कर दे और मानसून का पानी मिट्टी के ऊपर नहीं बहे बल्कि रिचार्ज करने के लिए नीचे चला जाये।
इस सभी का मतलब है, हमें प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली चीजों का उपभोग करना है, ताकि नदियों को बचाया जा सके।
अब बाजार ने शहद मधुमक्खियों को गायब करने के लिए एक और उपाय प्रस्तुत किया है - आयातित मधुमक्खी के बक्से।
इस तरह के कार्यक्रम चलाने वाले अर्थशास्त्रियों और संस्थानों द्वारा सभी तरह की पैरवी के बावजूद, मेरी वृत्ति ने इसे नहीं स्वीकार किया। मुझे इसमें लालच के अलावा कोई कारण नहीं मिला। बस एक ही उद्देश्य दिखा कि पहले प्राकृतिक वातावरण को नष्ट करके और फिर उन उत्पादों को बनाना जो छद्म रूप में हैं।
इस विषय पर, एक अंतर्दृष्टि पल में आई जब मैं नर्मदा किनारे यात्रा कर रहा था और डिंडोरी में मालपुर नामक एक छोटी सी जगह पर रुका। वहाँ मैंने पीपल और सेमल के पेड़ों को विशाल छत्तों से लदा देखा। आसपास के क्षेत्र में उनके लिए अनुकूल अन्य परिस्थितियां थीं- ताजे पानी की धाराएँ, बहुत सारे जंगली और अन्य फूल, आदि। प्रकृति मूल्यवान उत्पाद बना रही थी, लेकिन केवल जब निर्णय और नियंत्रण के बिना छोड़ दिया गया हो। दूसरी ओर, खेती वाली भूमि पीपल जैसे पेड़ों से साफ हो गई थी और वही लोग अब बॉक्स शहद उपकरणों की कामना कर रहे थे!
जितना मैं इस कार्य के लिए समर्पित हो गया, यह मेरे लिए समर्पित हो गया। दायरा और पैमाना कई गुना बढ़ गया। मुझे दूर के बढे शहरों से पूछताछ मिलनी शुरू हुई जो लोग कुछ जड़ी-बूटियाँ या प्राकृतिक भोजन चाहते थे। उनमें से कई तो कैंसर या जीवन शैली वाले रोगों या प्रदूषण रोगों से पीड़ित थे, जबकि कई एक विशिष्ट चीज चाहते थे जो केवल खाद्य वन वातावरण में ही उग सकती थी। (मेरे अन्य लेख देखें)
ग्रामीणों ने भी मेरे काम में रुचि लेना शुरू कर दिया और खाद्य जंगल विकसित किया। मैं चुपचाप देखता रहता जब वे अपने पशु के बीमार होने पर खस या घर के लिए जड़ी-बूटी या कच्ची हल्दी आदि ले जाते। यह स्पष्ट था कि उन्होंने प्रकृति के साथ एक खोए हुए जुड़ाव को फिर से खोज लिया था। फिर भी उनके पास अपनी भूमि पर ऐसा करने के लिए इच्छा शक्ति या बाजार का विश्वास नहीं था।
हालांकि, मुझे महसूस हो गया था कि हमें बहुत आगे जाना है। इन खाद्य वनों को स्थायित्व की आवश्यकता थी, जो कि मुख्यधारा बन जाने पर ही सुनिश्चित हो सकती है। अन्यथा वे भी बाजार की मांग से एक दिन कट जाएंगे, और राजनेता और अधिकारी, उच्चतम बोली लगाने वाले के लिये दलालों व ग्रामीण लोग उनके मजदूरों के रूप में काम करेंगे।
यह बहुत स्पष्ट था कि मौजूदा खाद्य मॉडल ने कई प्राकृतिक संपत्तियों को स्थायी संपत्ति के रूप में नहीं देखा था, बल्कि केवल एक बेकार या एक कटौती और बेची जाने वाली संपत्ति के रूप में। एक तरफ इसका उदाहरण पीपल या बरगद का पेड़ है। दूसरी तरफ उदाहरण सागौन या साज के पेड़ हैं, जहां हम भूल गए थहैं कि उच्च उपयोग के लिए उनकी छाया और पानी का उपयोग कैसे किया जाए, लेकिन केवल एक बार काटी गई लकड़ी में ही मूल्य देखते हैं।
(मैंने लंबाई में लिखा है कि कैसे एक पीपल का पेड़ एक सहजीवी वातावरण में एक अद्भुत स्थायी संपत्ति है)।
उस सोच के साथ, मैंने दो और कार्यों को प्राकृतिक खाद्य वन पथ में जोड़ा - एक यह था कि इससे स्थायी मूल्य की खोज की जाए, और दो यह पता लगाना था कि कैसे समुदाय, पास के और दूर के, एक पारस्परिक लाभ के साथ इसके साथ जुड़े हो सकते हैं।
मैंने कुशल प्रशिक्षकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नौकरशाहों, धार्मिक संतों इत्यादि द्वारा बहुविध हस्तक्षेपों को सुविधाजनक बनाया, जो आगे की राह की तलाश में हैं। यह अब तक मिश्रित प्रयोग रहा है और यह प्रयोग जारी है।
सबसे महत्वपूर्ण पहला कदम जैसे खाद्य वन से खस, जढी बुटी लेना, ग्राम वासियों ने स्वतः ले लिया। उसके बाद भी कुछ अन्य कदम प्रयास के बिना लिया गये हैं इसलिए मैं आगे पथ के लिए पदचिह्न देख सकता हूं।
मैंने पौड़ी के ऊंचाई पर भी, कई गांवों में इसी दृष्टिकोण से सोचा, और महसूस किया कि प्रकृति और लोगों का लगाव अभी भी बहुत मजबूत है। एक मौके लगने पर ही लोग एक औद्योगिक रूप से संगठित बाजार के मानसिक बंधनों को तोड़ देंगे और सहजीवी अस्तित्व के मॉडल पर वापस लौट आएंगे।
इस धरती पर कई विचारकों और इतने महान लोगों ने उस रास्ते का प्रदर्शन किया कि कैसे हमारे जीवन का आयोजन किया जाये। फिर भी पिछले पाॅच से सात दशकों में हम लोग केवल इससे दूर जाते गए।
मैं कई धार्मिक गुरुओं से मिला, लेकिन चूंकि मैंने पहले से ही स्वामी विवेकानंद के अद्वैत विचारों में खुद को डुबो दिया था, और यह पहली बार देखा था कि प्रकृति की चेतना कैसे काम करती है, इसलिये मेरे प्रश्न अधिक बुनियादी थे। एक किसान को सबसे अधिक धार्मिक पेड़ यानी पीपल या बरगद लगाने के लिए कैसे प्रेरित किया जाये? गायों को फिर से एक सार्थक जीवन कैसे मिल सकता है?
फिर मैंने कई सामाजिक चिंतकों की ओर रुख किया। उनमें से कई आर्थिक मॉडल के कारण उत्पन्न समस्याओं को हल करने की कोशिश करते हैं, और फिर भी उसी मानसिकता का उपयोग करके काम करते हैं जिसने पहले समस्या को जन्म दिया और पोषित करती है।
देश के अलग-अलग हिस्सों में कई प्रयोग चल रहे हैं, फिर भी एक ऐसा व्यक्ति जो अपने ही पैरों पर खड़ा है, बाहरी मदद से रहित है, मेरी नजर में नहीं मिला है।
कई मामलों में, मुझे गुमराह महसूस हुआ क्योंकि महान इरादे अहंकार या प्रसिद्धि से प्रेरित थे और कोई वास्तविक प्रयोग या काम नहीं था।
इसलिए मैंने अधिकांश स्थानों पर एक रिक्तता लगी, लेकिन मैंने ज्ञान के कुछ महान मोती भी इकट्ठा किए। मुझे पता है कि किसी दिन उनका अर्थ दिखाई देगा जब मेरा मन इसे देखने के लिए तैयार होगा।
कई मामलों में, ज्ञान का एक ही मोती देने वाले के लिए आगे का कोई फायदा नहीं था। इसीलिये मैं समय के साथ चेतना की श्रृंखला को देखता हूं- लोग कुछ ज्ञान को संरक्षित करते हैं जो उनके लिए कोई फायदा नहीं है, लेकिन केवल सही समय पर उसको आगे देने के लिए।
प्रकृति में भी वैसा ही है - कोई भी देख सकता है कि पक्षी पीपल के फल को खाते हैं और सही जगह (मल के रूप में) बीज गिरा देते हैं। इससे कई पीढी बाद मधु मक्खियों व अन्य के रहने के लिए एक इष्टतम स्थान तैयार हो जाता है।
अब तक सब लोग सो चुके थे। उन्हें पता था कि हम एक फिर उसी अंत तक पहुँच चुके हैं, जहाॅ मैं कई बार मन में पहुँच रहा था।
अब मैं मौन में सितारों पर टकटकी लगा सकता हूं और गहराई से सोचने के लिए महुआ के प्रभाव का उपयोग कर सकता हूं।
5. चिंतन:
जब भी अंधेरा गहरा होता है, हमें आशा की किरण के रूप में स्वामी विवेकानंद, गांधी, टैगोर, और बहुत से लोग याद आते हैं जो इस भूमि पर रहे हैं। हम दीनता से महसूस करते हैं कि यही वह स्थान था जहाँ बुद्ध, शंकराचार्य ने चिंतन किया था, जहाँ प्राचीन वेद और अद्वैत दर्शन पहली बार आये थे।
अभी भी आबादी का एक बड़ा प्रतिशत है, जो समझता है कि नदियाॅ हमारी माता होने के नाते, पूजानीय हैं, और प्रत्येक तत्व और प्रकृति को हमारे स्वयं के कल्याण के लिए सम्मान देना है।
फिर भी जिस क्षण हम उन गंभीर विचारों से बाहर आते हैं, और व्यावहारिक जीवन में वापस आते हैं, तब हमारा व्यवहार और उपभोग इन विचारों से काफी भिन्न हो जाता है।
पिछले कई वर्षों में, मैंने जीवन के अधिक सरल सम्पूर्ण व प्राकृतिक तरीके की खोज में, कई अलग-अलग प्रयोग किए। इसमें सेल्फ हीलिंग, वन थेरेपी, वैकल्पिक स्कूली शिक्षा और सहभागी प्राकृतिक खेती और सामुदायिक सेवा शामिल थी। मेरा मानना था कि यह प्रयोग, अवधि या फोकस क्षेत्र से परे बड़े व्यवहार परिवर्तन को प्रेरित करेगा। हालांकि, यह कुछ व्यक्तियों को छोड़कर ज्यादातर व्यर्थ साबित हुआ। वैसे भी उनमें से अधिकांश इन प्रयोगों में शामिल होने से पहले ही बदल गए थे।
जैसे ही इन प्रयोगों का प्रभाव खत्म हो गया, लोग विनाशकारी प्रथाओं पर वापस लौट आए। कुछ मामलों में बाजार की पसंद की आभा बहुत बड़ी थी, जबकि कुछ अन्य में यह एक परीक्षण था जो उनके मन को और नहीं पकड़े रह सकता था क्योंकि इसको पालन करना मुश्किल था।
इसलिए मुझे लगता है कि एक ऐसा बदलाव लाना जो प्रकृति के और मनुष्यों के शोषण को रोकता है, बाहरी परिवर्तनों के माध्यम से संभव नहीं होगा।
उदाहरण के लिए, लोग जोखिम मुक्त अवसर उपलब्ध होने पर भी चोरी नहीं करते हैं, क्योंकि वे मूल्य प्रणाली या धार्मिक पाठ में विश्वास करते हैं। संविधान या दंड की बाहरी किताबें बुनियादी मानव व्यवहार को लागू करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
मैंने यह भी महसूस किया कि हमारे देश में कई लोग, विशेष रूप से अधिक उम्र के लोग, जितना संभव हो एक प्राकृतिक जीवन शैली का पालन करते हैं। जितना कम से कम विनाश करके और अधिकतम देना वे कर सकते हैं, वे करते हैं। वह भी प्रेमभाव से।
इसलिए परिवर्तन को अंतर्मन से आना पड़ता है, और यह वह जगह है जहां बाजारों में प्रवेश किया है।
कोई यह कह सकता है कि मनुष्यों को आसानी से भय या लालच द्वारा वांछित उपभोग और संबद्ध व्यवहार के लिए प्रेरित किया जा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि उस लालच या भय को कौन पैदा कर रहा है?
प्रकृति और अन्य जीव इसे पैदा नहीं कर रहे हैं। प्रकृति ज्यादा से ज्यादा मृत्यु का भय पैदा कर सकती है, लेकिन साथ ही साथ अगली पीढ़ियों के लिए त्याग और संरक्षण की भावना भी पैदा करती है, और अधिक उपभोग करने का लालच नहीं।
हर पल प्रकृति में मृत्यु व जीवन के निर्माण को देखकर, मैंने जाने और आने के चक्र के साथ स्वयं को एक महसूस किया है।
तो डर और लालच पैदा करने की जिम्मेदारी इंसानों पर ही आकर रुक जाती है। मैंने इसे अकेले में इंगित करने की कोशिश की, लेकिन बहुत सारे उदाहरण हैं जहां सबसे अधिक स्वार्थी मनुष्य भी कभी कभी ऐसी निस्वार्थ भावना प्रदर्शित करता है। यह दिखाता है कि कोई भी मानव आसानी से लालच व डर से ऊपर उठ सकता है।
जब मैं स्वयं से परे जाता हूं, तो वह परिवार होता है, जो समाज से अपने डर और लालच को उधार लेता है, जो बदले में इसे कहीं और से ले रहा है। पोस्टरों, अखबारों और चैनलों से चिल्लाते हुए लालच और भय का एक पूरा संसार है। उसमें बहुत गंभीर संदेश भी शामिल हैं जैसे एक प्रतिशत कम आना या एक स्कूल में न प्रवेश पाना, स्वास्थ्य की लागत, गरीबी में परिवार को पीछे छोड़ मृतयु हो जाना, आदि।
फिर इसमें बहुत तुच्छ संदेश भी हैं लोगों के लिए जैसे कि दुनिया में सबसे सफेद शर्ट पहनना या सबसे महंगा बैग लेना ईत्यादि बेतहाशा मूर्खतापूर्ण संदेश।
ये सभी संदेश मानव कृति ही हैं - जो बहुत लोगों से लाभ लेकर, चन्द लोगो को लाभ पहुॅचाते हैं।
मनुष्य इन प्रेरित भय और लालच में क्यों भाग लेते हैं? मुक्त बाजार एक सुंदर अवधारणा है, लेकिन सिर्फ जब बाजार, प्रायोजित व्यवहार पूर्वाग्रह या सूचना अंतराल से मुक्त होते हैं।
प्रायोजित बाजार ऐसे रोल मॉडल बनाते हैं जो लोगों को महान लोगों से भीअधिक प्रेरित करते हैं।
एक उंगली ने मेरी तरफ इशारा किया! बस कुछ IITians या IIM या IAS लोगों या सीनेटरों या पैसे वाले कलाकारों और उनकी आर्थिक सफलता (जो कि मौद्रिक श्रृंखला का एक छोटा प्रतिशत था) को दिखाते हुए, पूरे समाज को अप्रासंगिक विषयों और शिल्पों को पढ़ने के लिए आश्वस्त किया जाता है। और ऐसै जीवन और शिक्षा से विमुख करा जाता है जो उन्हें आत्मनिर्भर और गौरवान्वित रखे।
ये तो महज रोल मॉडल हैं- कुछ लोगों के जो अच्छे खेले और पुरस्कृत हुए, और अब जनता को लुभाने के लिए दिखावे के हैं। सवाल तो यह है कि अगर पहले से मौजूद हालात अच्छे होते तो लोग क्यों इनको देखकर फुसला जाते?
शोषण की एक लंबी अवधि - लिंग उत्पीड़न, जमींदारी, भेदभाव, ने शायद ऐसी परिस्थितियां पैदा कीं, जहां यह नामहीन, चेहराहीन बाजार और स्वतंत्रता का वादा आकर्षक लग रहा है।
जैसे जैसे पुराने शोषण खत्म होते गए, मन ने भयभीत और लालची होने के नए तरीके सीखे। ये बहुत ही भले लगते हैं क्योंकि वे मजबूरी की बजाय अपनी पसंद से आते हैं।
क्या इन आदत बन चुके विकल्पों को दूर किया जा सकता है? क्या इसकी जरूरत है? क्या एक बेहतर परिणाम संभव है?
मैंने इतने लोगों को पहले से ही लालच और डर के इन विकल्पों से परे रहते देखा था। दुर्भाग्य से, मेरे संपर्क में आने वाले कई लोग बुरी घटनाओं से प्रेरित थे। बुरा अनुभव एक व्यक्ति को सभी मानसिक संपत्ति को फेंकने की शक्ति देता है- एक कैंसर या उसके बाद अस्तित्व को बनाए रखने की लढाई, एक निरंतर शैक्षणिक या कैरियर की विफलता, अकेलापन, आदि।
लेकिन इनके अलावा भी बड़ी संख्या में लोग अभी भी इस प्रतिमान से अप्रभावित रहते हैं। उदाहरणतः हमारे देश में पुरानी पीढ़ी के अधिकांश लोग अभी भी छोटे कामों, दैनिक कामों को देने की भावना से करते हैं , साथी जीवन और प्राणियों की देखभाल कर रहे हैं। उनका लालच या डर स्व-संरक्षण तक ही सीमित है।
फिर हर दूसरे घर में संतजन हैं, और हम में से हर एक में वह मानव है जिसे प्रकृति इतनी आसानी से पुकारती है जब एक छोटा पक्षी पेड़ से गिरता है या पौधे को मदद की ज़रूरत होती है।
यह मुझे विश्वास दिलाता है कि एक बेहतर दुनिया न केवल संभव है बल्कि इसका निर्माण करना आसान है।
क्या इसकी जरूरत है?
हाँ, पहले से कहीं अधिक और तत्काल। हमने मिट्टी, वनस्पतियों, सभी प्रकार के जानवरों के जीवन को समाप्त कर दिया है और पानी के प्रवाह और वायु की गुणवत्ता को कम करते चले गए हैं।
मनुष्य प्राकृतिक प्राणी है और प्रकृति से अलग-थलग नहीं हो सकता। प्रकृति को चर्चाओं में हरियाली तक सीमित कर दिया गया है, लेकिन यह अदृश्य के बारे में अधिक है - ऐसी प्रक्रियाएं और भौतिक रूप जो दिखाई नहीं देते हैं।
इन प्रक्रियाओं को सूचीबद्ध करना मेरी क्षमता से बहुत परे है, क्योंकि अभी तक विज्ञान भी वहाॅ पहुॅचा नहीं है। मुख्य रूप से हम जो कुछ भी जानते हैं, उसमें जीन से लेकर एक बीज तक और फिर उस बीज के चक्र में बहुत प्रक्रियाएॅ शामिल हैं जो ऊर्जा स्रोत के उपयोग को अधिकतम करते हैं। फिर
सूर्य का चक्र, समुद्र से ग्लेशियरों तक पानी का प्रवाह (हमारे देश में मानसून के माध्यम से), हवा के घटकों के ठीक संतुलन का प्रबंधन जो जीवन को संभव बनाते हैं, मिट्टी का निर्माण करते हैं जो जीवन के छोटे रूपों का पोषण करते हैं और जीवन के बड़े रूपों को धारण करते हैं।
मानव व प्रकृति के संबंधों पर एक नज़र - सूर्य के प्रकाश का उपयोग करके विटामिन डी का निर्माण; हमारे भीतर हवा और पानी के निरंतर प्रवाह; सूरज, मिट्टी, हवा और पानी से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का संबंध, इत्यादि ।
जब हम किसी भी कारण से इन प्रक्रियाओं से टूट जाते हैं या छेड़छाड़ करते हैं, तो हम अप्राकृतिक हो जाते हैं। हम प्रकृति से वंचित होने लगते हैं और इसलिए दुखी हो जाते हैं।
दवा और प्राकृतिक / दर्शनीय स्थानों की यात्रा जैसे अस्थायी उपचार केवल अस्थायी तौर पर ही काम करते हैं। यह हमारी खालीपन की भूख को और बढ़ाते हैं जो प्रकृति का अधिक शोषण करवाती है।
इस लिहाज से मौजूदा बाजार को यह पसंद है। लेकिन इस तरह जीवन को जारी रखना अब संभव नहीं है। आगे का रास्ता बनाना होगा।
मेरे लिए आगे का रास्ता एक ही प्रकट होता है - लालच और भय से प्रेरित खराब विकल्पों को दूर करना।
क्या ऐसा करने के लिए बहुत साहस या बल की आवश्यकता होती है?
जैसा कि पहले देखा गया था, बहुत से लोग सत्य या जीवन और प्रकृति के प्यार के लिए, इन आदतों को टोपी की तरह छोड़ने में सक्षम होते हैं और कभी भी पथ से पीछे नहीं हटते हैं। इसलिए मनुष्यों के भीतर कुछ सरल है जिससे हमारे व्यवहार में बदलाव लाने वाली शोषणकारी ताकतें हार सकती हैं।
आइंस्टीन का वाक्य मेरे दिमाग में गूँजता है, "कोई भी समस्या चेतना के उसी स्तर से हल नहीं हो सकती है जिसने इसे बनाया है।"
इसलिए यदि हम वास्तव में बदलाव चाहते हैं, तो यह मौजूदा आदतों से पैदा नहीं होगा।
यहां, मैं अपनी आँखें बंद कर लेता हूं। थोड़ी देर के लिए सितारों से दूर, और सरल दैनिक जीवन की चीजों के बारे में सोचता हूं जिन्होंने हमें प्रभावित किया है। मैंने अद्वैत दर्शन के उच्चतम मार्गदर्शक सूत्रों के बारे में भी सोचा, क्योंकि सभी उत्तर पहले से ही वहाँ खड़े हैं, समय में जमे हुए।
6. सौंदर्य
जिस क्षण मन स्वयं से आगे देखना शुरू करता है, वह पहले स्वयं के और अपने सौंदर्य के विस्तार की खोज करता है। उस सुंदरता को परिभाषित करना इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वह स्वयं को संपूर्ण का एक हिस्सा मानता है या स्वच्छंद मानता है। मैंने महसूस किया है कि एकात्म भी भी देख पाना आसान है, लेकिन अधिकांश मानव शिक्षा और सामाजिक प्रणालियों ने स्वच्छंदता के लिए दिमाग पर काम किया है (न कि स्वतंत्रता के लिये) क्योंकि एकात्म से बिचौलियों व शोषण समाप्त हो जाते हैं।
एक बार अपनी स्वच्छंदता के प्रति आश्वस्त होने के बाद, मन सुंदरता को परिभाषित करने और नियंत्रित करने की कोशिश करता है। यदि कोई चीज सुंदर है, तो उसे प्राप्त करना सफलता बन जाती है और उसे खोना असफलता बन जाता है। यदि कोई चीज बदसूरत है, तो उसे हराना सफलता बन जाता है। यही से लालच और डर का संपादन होता है। यही कारण है कि जब व्यक्ति स्वच्छंदता के बहाने बाजार को आजादी सौंपता जाता है तो शोषणकारी ताकतें ही प्रभावी रूप से बाजार का उपयोग करती हैं।
सफलता के कई लक्ष्य अलग-अलग उम्र और वर्ग के लिए परिभाषित होते हैं। प्रत्येक लक्ष्य दूसरे से स्वतंत्र होने के कारण, कई सूत्रों या बाजार के कई अवसरों को बनाता है। कई बार लक्ष्य भी जल्दी बदल दिया जाते हैं। ऐसा अधिक लाभ प्राप्त करने या थकान को दूर करने के लिए किया जाता है, कि कहीं ऐसा न हो कि व्यक्ति को इसकी निरर्थकता का एहसास हो जाए।
एक समय था जब पुष्ट लड़कियां दुनिया भर में सुंदर थीं, अब जंक खाद्य पदार्थों के प्रसार के साथ, पतला होना और अधिक सुंदर हो गया क्योंकि पुष्ट शरीर को प्राप्त करना अब आसान है। यह एक संयोग नहीं है इसी के साथ अनाज और फलों पर उलटे मापदंड चलन में आ गए।
गोरे को धनी के रूप में प्रचारित किया गया, और इसलिए सुंदर; इसलिए हमारे पास एक नया पैरामीटर था। मुझे शिक्षा और स्वास्थ्य बाजार के बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है। गांवों में, एक समय में पेढों से छायांकित खेत सुंदर था। लेकिन एक बार भारी मशीनें और ट्रैक्टर बाजार में उपलब्ध हुये तो केवल गेहूं और उसके सोने के रंग के साथ सादे खेत, समृद्धि और इसलिए सुंदरता का प्रतीक बन गए। यह दुख की बात है कि ग्रामीणों को अब गांवों में जैव-विविधता या पीपल, नीम जैसे पेड़ों में कोई उपयोगिता या सुंदरता नहीं दिखती है, लेकिन केवल कुछ हानिकारक फसलों के पीछे ही भीढ़ चलती है।
वास्तव में, प्रकृति की विविधता द्वारा प्रदत्त गुणकारी चीजें, मानव आत्मा के लिए खुशी और सीखने का एक बड़ा स्रोत हैं।
शोषणकर्ता इस बात से ईर्ष्या करते हैं। इस आकर्षण को दूर करने के लिए और अपनी छद्म विविधता के उथलेपन को छिपाने के लिए, बाजारों ने कई चालें चली हैं। ब्रांडों और आकारों और मिश्रणों की विविधता की कोशिश की है। यह निर्णय लेने और चुनने की शक्ति का अहसास जरूर देता है, लेकिन चाहे वह गेहूं का आटा हो या ऋण या स्कूल, इन सबका स्रोत एक उथली गैर विविध प्रणाली है।
सुंदरता का एक और पहलू, हमारे समय का प्रकृति के समय के साथ तालमेल होना है। यह हमें रात को, सर्दियों में और चरम मौसम होने पर धीमा होने का संकेत देता है, और मौसम और दिनों की ताल का आनंद लेने को कहता है।
जैसा कि महान दार्शनिकों ने दिखाया है, इसका मतलब यह नहीं है कि मानव जढ़ हुआ जाए, बल्कि यह तो अधिक अनुभव करने और अधिक सोचने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन बाजार इसे पसंद नहीं करते हैं। विकास अब एक बहुत ही भौतिक शब्द है और जीडीपी जैसे मौद्रिक मापदंड इसका एक पैमाना है। और यह पैमाने प्रकृति की गति से संघर्ष करते हैं।
प्रगति या विकास गलत तरीके से सुंदरता का पर्याय हो गया है और इसके प्रमाणस्वरूप उच्च खपत होती है।
एक संतोषी व्यक्ति जो साधारण मटमैले कपढ़ो में कठोर परिश्रम करता हो, उसे एक अच्छे इंसान के रूप में तो सराहा जाता है, लेकिन अब वह अपने बच्चों के लिए भी प्रेरणा या सुंदरता का स्रोत नहीं है।
इसलिए, किसी भी व्यक्ति द्वारा दूसरों को खुशी देने की बात, या मानव उपभोग को प्राकृतिक बनाने की बात या बाजार को शोषणरहित बनाने की बात, तब तक खोखली हैं जब तक कि उस व्यक्ति का सुंदरता का बोध शुद्ध नहीं हो जाता। ऐसा हो जाने पर तो व्यक्ति किसी भी सौंदर्य को उसकी पूर्ण विविधता के साथ आत्मसात करने के लिए तैयार होगा। उसके लिये
एक भिखारी के गंदे पांव भी महंगे जूते पहने साफ पैरों की तरह ही विशिष्ट या आम होंगे। हालाॅकि मेरे लिए, भिखारी के पैर निश्चित रूप से अधिक सुखद हैं क्योंकि मुझे महंगे जूतों में प्रकृति की हानि दिखाई देती है।
मैं सुंदरता पर ओशो के शब्दों को भी उद्धृत करता हूं: "संवेदनशीलता बढ़ने की कोई संभावना नहीं है यदि सुंदरता को सम्मान, सराहना, आनंद नहीं मिलेगा। उसके बिना आपकी सारी संवेदनशीलता मर जाएगी…। मेरे लिए, सुंदरता सच्चाई से कहीं अधिक मूल्यवान है। सत्य केवल सौंदर्य का एक पहलू है, सौंदर्य का एक चेहरा। सौंदर्य स्वयं भगवान है। यदि आप सुंदरता के साथ प्यार में हैं तो आप कुछ भी गलत नहीं करेंगे - यह पर्याप्त सुरक्षा है - क्योंकि कुछ भी गलत करने के लिए आपको कुछ बदसूरत करना होगा। "
7. परोपकार या दयालुता
हम अपने अंदर और इस दुनिया में सुंदरता को कैसे बढ़ाना शुरू करते हैं?
सुंदरता स्वतः परोपकार की ओर ले जाती है और परोपकार सुन्दरता की ओर। परोपकार या दयालुता, सुंदरता को देख पाने करने का एक आसान तरीका है।
यहाँ मुझे दो घटनाओं को याद करना चाहिए-
एक बूढ़े सज्जन जो काफी उदास थे, ने मुझे एक मेल लिखा। उनकी पत्नी का निधन हो गया था और बच्चे विदेश में थे, और उन्हें एकाकीपन हो गया। वह जीवन के बारे में उदासीन हो गए थे और इसमें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उन्होंने वृद्धाश्रम में रहने की कोशिश की थी, और समुदाय को लाभ पहुंचाने के लिए समूह की गतिविधियों में भी भाग लिया, लेकिन जल्द ही अपने एकांत में वापस आ गए क्योंकि इससे भी वे नकारात्मकता से छुटकारा नहीं पा सके थे।
मैंने महसूस किया कि उनका जीवन बहुत ही स्वार्थी लक्ष्यों को पूरा करने में बीता है, चाहे वह अपने बच्चों या परिवार के लिए हो। अब वही स्वार्थ अंधा कर रहा था और इस परेशानी का कारण बना।
मैं इस तरह के मामलों में एक पेशेवर सलाहकार नहीं हूं, परन्तु बुजुर्ग को मुझसे कोई निदान की बहुत उम्मीदें थीं। मैंने बस उनको दो हफ्तों के लिए दो चीजों में से किसी एक को करने के लिए कहा- एक गली के किसी जानवर की देखभाल करें जिसे देखभाल की आवश्यकता है, या पास के बगीचे में जाएं और एक नए पौधे की देखभाल करें। उनको पसंद तो नहीं आया फिर भी मैंने उनको एक सप्ताह ही करने को मनाया।
उन्होंने दोनों किया। पहला हफ्ता स्वेच्छा से चला गया और फिर दूसरा भी। कुछ हफ्तों के बाद, यह समय आ गया कि पिल्ला बड़ा हो गया था और स्वच्छन्द रहने लगा। इस बार उन्होंने उसे बिना बंधन के जाने दिया। पौधों का ऐसा समय भी आ जाएगा।
लेकिन यह छह सप्ताह शानदार रहे थे और अब मन और अधिक यह अहसास चाहता था। मुझे यकीन है कि दुनिया की सुंदरता अब उसे बुला रही थी।
एक अन्य घटना में, एक युवा महिला जो बहुत बुद्धिमान थी, वह अपने स्वभाव को रोक नहीं पाती थी, बहते बहते उत्तेजित हो जाती। मनोचिकित्सकों ने उसकी स्थिति को एक मानसिक विकार के रूप में पहचाना और शांत रखने के लिए उसे दवाएं दीं। जल्द ही माता-पिता ने देखा कि वह केवल उन दवाओं के प्रभाव में ही सामान्य थी, अन्यथा और अधिक उत्तेजित हो जाती थी। उन्होंने उसे वैकल्पिक उपचार स्थानों पर भेज दिया। वहाॅ काफी सुधार भी हुआ लेकिन अभी भी पूर्णतः कोई समाधान न था। कभी कभी परिस्थिति आ जाती थी जब वह अनियंत्रित हो जाती थी।
वह इसके विषय में काफी जागरूक थी लेकिन उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकती थी। कुछ इत्तेफाक से मेरा परिचय उस परिवार से हुआ।
माता-पिता पश्चिमी विचार और मनोविज्ञान के माध्यम से इसका विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन मुझे लगा कि पश्चिमी विचार, सिर्फ शरीर और दिमाग पर ध्यान केंद्रित करने तक सीमित है। वास्तव में, यह अधिकांश शारीरिक बीमारियों को मानसिक विकारों से जोड़ने की कोशिश करता है और भौतिक स्तर पर ही इलाज ढूंढ़ता है।
यहां तक कि मानसिक से शारीरिक इलाज तरीके की प्रक्रिया भी नहीं है उनके पास। जबकि तर्क ही बोलते है कि यदि दो चीजों के बीच डोर है तो दोनों तरफ से खींचना संभव होना चाहिये।
और आत्मा और चेतना पश्चिमी तंत्र के दायरे से बाहर हैं। मुझे लगा हमें वहां देखना चाहिए।
आत्मा दया के अलावा और कुछ नहीं है। इसमें शरीर, मन और चेतना को लय में बाॅध कर रखने की ताकत है।
(मैंने यह भी महसूस किया कि उसे क्या परेशान कर रहा था, लेकिन वह यहां का विषय नहीं है; प्रकृति और दर्शन के साथ लंबे समय तक संबंध एक अलग तरह के अहसास पैदा कर देता है)।
तो सरल उपाय दयालुता को मजबूत करना था। लड़की की पसंद के साथ ही दयालुता के विषय को चुना गया किया गया। अब उसे अपना ध्यान इस विषय की सेवा में लगाना था।
इस तरह के मजबूत सुरक्षात्मक आवरण के साथ, उसने मानसिक लहरों को संभालना सीख लिया है। इसके कारण वह एक योगिक क्रिया व ग्रह उपाय भी स्वयं कर गई।
ऐसी दया की क्षमता है। मेरे लिये दया का अर्थ है, निस्वार्थ, स्वयं को छोड़ देना। इसका मतलब समाज का मार्गदर्शन करना या उसके लिये काम करना बिल्कुल नहीं है।
इसीलिए, मैं कॉर्पोरेट तरह की दयालुता और इसे प्रोत्साहित करने वाली सरकारी नीतियों का समर्थन नहीं करता। मौद्रिक दान तो हृदय परिवर्तन को तुच्छ बना रहा है। यह एक नया विचार पैदा करता है कि सामाजिक कार्य (वित्तीय श्रृंखला द्वारा संचालित) दयालुता का तरीका है। फिर, किसी को इस कार्य, समाज पर इसके प्रभाव और मापदंडों को परिभाषित करना होगा। फिर नियंत्रित करना होगा। इन सबमें देने का विचार कहां है?
दुर्भाग्य से, सरकारों, कॉर्पोरेट और नौकरशाहों, यहां तक कि धार्मिक समूहों को भी लाभार्थियों से अधिक इन कार्यक्रमों की आवश्यकता है। सामाजिक परोपकार की आड़ में विचारों, आदतों और प्रेरित व्यवहारों को बदलना आसान है। ऐसे कार्यक्रमों में एक अंतर्निहित दिशा होती है जो शोषक बाजारू बलों से मुक्त नहीं होती है।
इसीलिये, मैं झुंड की सक्रियता या किसी भी सामाजिक अभियान को समथन नहीं करता, भले ही वे अच्छे इरादों के साथ हों। यह तमस व रजस के साथ व्यक्तियों को आंतरिक दया से विमुख करते हैं। मेरा मानना है कि दयालुता का उद्गम व्यक्ति की चुप्पी और भावनाओं में है, न कि प्रचार में।
पहले के समय में, जब कोई भिक्षा मांगने के लिए दरवाजे पर आता था, तो दाता को बाहर आकर देना पड़ता था। और साधक को विनती करने की आवश्यकता नहीं थी, बल्कि अधिकार था। देने वाले को यह अधिकार था कि वह उसके पास जो कुछ है वही दे, पर उसे दूसरों से इकट्ठा न करे।
यह एक सात्विक कार्य था, जिसे देने वाले से कोई ऊर्जा की आवश्यकता नहीं थी और इसलिए ऋण लेने और उधार लेने का कोई बोझ नहीं था।
कभी-कभी साधक दानकर्ता की गरीबी को देख सकता था, और उसपर इसे उपयोगी बनाने के लिए एक दबाव होता था।
इस तरह की संस्कृति ने महान दर्शन को लिखने की अनुमति दी, महान विश्वविद्यालयों का निर्माण किया गया। सामान्य लोगों के दान पर बढ़ने वाले साधकों के पास कोई भौतिक सामान नहीं था, लेकिन शक्तिशाली राजाओं पर सवाल उठा सकते थे।
इसने किसी को भी आयोजन एजेंसी के रूप में कार्य करने की अनुमति नहीं दी। व्यक्तियों को पूछना पड़ता था, व्यक्तियों को देना पड़ता था।
दोनों एक दूसरे को जानते थे क्योंकि यह एक नियमित प्रक्रिया थी।
पश्चिमी विचारों ने दयालुता के हमारे विचार को दूषित कर दिया है।
हम बहुत दूर दान देते हैं, और इसके लिये माध्यमों की आवश्यकता पढ़ती है। यह हमें उस आत्म रोशनी से वंचित करता है जो किसी जरूरतमंद से सीधे जुढ़ने से आती है।
और यह जरूरतमंदों से भी छुपाता है कि इसने इसे देने के लिए दानकर्ता ने क्या कर्म किये।
सोचिए कि दशकों के बाद यह स्थिति कैसे आई कि इतने लोग वित्तीय व्यवस्था के किनारे पर चले गए?
यदि वे इस प्रणाली में लाभकारी पक्ष में नहीं हों, तो क्या मददगार हो सकते हैं?
मेरा मानना है कि दानकर्ता, वित्तीय संसाधनों (जो भी रूप में) का उपयोग किए बिना मदद दें तो बहुत अधिक प्रभावशाली हो जाएंगे।
यह दानकर्ताओं के वर्तमान दिमाग को एक चुनौती देता है लेकिन एक नया प्रतिमान खोलता है।
आइंस्टीन ने कहा था, 'वही स्तर की चेतना जिसने समस्या पैदा की है, उसी चेतना से समस्या हल नहीं की जा सकती है।'
जो मौद्रिक शक्ति परोपकार को ईंधन देने के लिए एकत्र होती है, उसका भुगतान तो अधिभार सहित भूत या भविष्य में, सबसे कमजोर वर्ग द्वारा ही किया जाएगा।
इसलिए, दयालु व्यक्तियों द्वारा सौंदर्य अनुभव तभी किया जाता है, जब बिना किसी अन्य प्रणाली से लेकर, वह दिया जाये जो स्वजनित हो। ऐसा दान तो पदूर तक एक एहसास या लहर के रूप में यात्रा करता है।
यह व्यक्तिगत बल ही हमें एक खूबसूरत दुनिया में बदल सकता है। इसे मैं सात्विक दान कहता हूं।
8. चेतना
दयालुता व्यक्ति को संसार की सुंदरता के दर्शन करा सकती है लेकिन दयालुता दुनिया को कैसे बदलती है? दयालुता का पहला कार्य कहाँ से शुरू करें?
परोपकार घर से आरंभ होता है; इसलिए उपकार की शुरुआत भी खुद से करनी होगी।
हम नश्वर प्राणी हैं, और यह एक आशीर्वाद है। हमें पहले खुद पर उपकार करना चाहिए। हमारी चाल हमारे लक्ष्यों की सनक और ख़ुशियों पर नहीं निर्भर होनी चाहिये। सारे लक्ष्य तो हमसे पहले या बाद में नष्ट हो ही जाएंगे।
तो हमें अपने समय की चाल को प्रकृति की चाल से मिला लेना चाहिये। धीमे चलना है या तेज़ी से आगे बढ़ना है यह प्रकृति हमें बताती जाती है।
हमें अपनी अवस्था का भी सौंदर्य देखना होगा। उसको दूसरों या समाज के आर्थिक या भौतिक मापदण्डों से ऊपर उठकर देखना होगा। दूसरों के कुवाचारों का प्रभाव से अपनी दयालुता को आहत न करें। उन्हें उपचार की आवश्यकता है, शायद आपके माध्यम से।
स्वयं के आगे हमारी दयालुता को तत्काल अपने परिवार तक पहुंचाने की जरूरत है। एक बच्चा जो खुश है परन्तु इस शिक्षा प्रणाली में लेकिन असफल हो रहा है, वह संसार के लिये एक आनंद है। उसकी किसी संवेदनहीन आक्रामक विजेता से तुलना मूर्खता है। एक छोटे जानवर या एक संघर्षरत पौधे के प्रति दया का भाव इस सचेत संसार में संदेश भेज देता है। निश्चित रूप से यह संसार आपके पास पहुंचने की कोशिश करेगा।
मैं इतने सारे प्रबुद्ध लोगों-संतों, मानवतावादियों, वैज्ञानिकों और गणितज्ञों के जीवन में चेतन संसार द्वारा भेजे गये अनुग्रह को देखता हूं। उनके द्वारा साझा किए गए एक से एक बेहतर उदाहरण हैं, लेकिन यहां मैं अपने सामान्य अनुभव को साझा करता हूं।
जब मैंने पहली बार मिट्टी को फिर से स्वस्थ और जीवन से भरा हुआ बनाने के लिए काम शुरू किया था, तो विचार यह था कि केंचुओं को रहने और काम करने के लिए एक अच्छी जगह मिल जायेगी। एक बार मिट्टी तैयार होने के बाद मैंने कई पौधे भी लगाये। विश्वास था कि वे मिट्टी की मदद करेंगे और गर्मी व ठंढ से केचुओं का बचाव करेंगे।
एक व्यक्ति जल्द ही अपने शारीरिक प्रयास की सीमाओं का एहसास करता है। कई नीम व अन्य पौधे जो मैंने भविष्य की हरियाली के लिए लगाए थे, वह जीवित नहीं बचे क्योंकि उनकी समय पर देखभाल नहीं की जा सकी, और उनको बचाने के लिये मिट्टी हर जगह जीवित नहीं थी।
पहली गर्मी के बाद मुझे लगा कि यह एक लंबा संघर्ष होगा।
लेकिन प्रकृति इस प्रयास को देख रही थी। जहाँ कहीं भी मिट्टी थोढ़ी भी नम बची थी , वहाॅ अपने आप ही बढ़े पेढ़ों के पौधे आ गये। कुछ बीज स्वयं हवा में बहकर आ गये थे तो कुछ नीमफल खाकर पक्षी गिरा गये थे। उन पौधों की पत्तियों को खाने के लिए, बहुत सारे हिरण और गाय आए। उन थोढ़ी सी अलग-अलग पत्तियों के बदले में, उन्होंने वहाॅ खाद को गिरा दिया जिससे जमीन पर गर्मी में भी नमी बनी रही।
जब मैं मानसून में फिर से काम करने के लिए आया, तो मुझे लगा कि इस क्षेत्र को बहुत मदद की जरूरत नहीं है। प्रकृति ने खराब हुए पौधों की भरपाई भी कर दी थी, और गर्मियों की सूखापन का भी ख्याल रखा लिया था।
इसके अलावा, मुझे यह भी लगा कि प्रकृति इसे किसी और दिशा में ले जाने को निर्देशित कर रही थी। मैंने पीपल या बरगद या सेमल बिल्कुल नहीं लगाये थे, लेकिन पक्षियों ने ऐसा किया था। अपने छोटे जीवनकाल में, यह उनके लिए किसी काम का नहीं था, लेकिन ये पेढ़ बढ़े होकर मधुमक्खियों और कई अन्य पक्षियों, और सांपों के लिए अच्छे निवास होते हैं। इसलिए, उन्होंने इसे कई पीढी बाद आने वाले दूसरे जन्तुओं के लिए भी कार्य करना शुरू कर दिया था।
मेरा छोटा सा प्रयास प्रकृति द्वारा बहुत अधिक बढ़ा दिया गया। वह भी किसी उच्च चेतना के प्रभाव में। मुझे अपनी अज्ञानता पर मुस्कुराने के लिए छोड़ दिया गया था। मुझे बस स्वयं का निर्णय करना था कि क्या भविष्य के राजस्व या नकली सुंदरता को लागू करने के लिये इस काम को बदला जाए?
मैंने कुछ नहीं बदला, क्योंकि दया ने मेरा मार्गदर्शन किया।
अल्बर्ट एसेनटीन ने एक बार कहा था, “खोज की राह पर बुद्धि का महत्व कम है। चेतना में एक छलांग आती है, इसे आप अंतर्ज्ञान या क्या कहेंगे, बस समाधान आपके पास आता है और आप नहीं जानते कि कैसे और क्यों हुआ । "
बस ऐसे ही दयालुता दुनिया में परिवर्तन का प्रचार कर सकती है। हमें बस आपनी दयालुता रखनी है। वह जिसे छुऐगी, उसकी चेतना को आह्वान करेगी।
दुनिया को चेतना की एक बड़ी छलांग से बदला जा सकता है जैसे कि विवेकानंद या आइंस्टीन ने अनुभव किया।
लेकिन दुनिया बड़े पैमाने पर भी बदल सकती है अगर अधिक से अधिक लोग सिर्फ अपने भीतर उस चेतना की उपस्थिति महसूस करें, इसे दया के साथ बढ़ने दें और सुंदरता के दर्शन करें।
9. भारत के दर्शन
इन विचारों के साथ, मैं वापस कर्मभूमि, भारत लौट आया। आम धारणा में, भारत प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक सौंदर्य की भूमि है। यहाॅ प्अरकृति की अनेक अनोखी छटाएॅ हैं जैसे मानसून, हिमनदियाॅ, इतने सारे मौसम आदि। प्रत्येक ऋतु अपने रंग, जीवन और उत्सव लाती है। मानव सभ्यता का इतिहास और विरासत है।
हालांकि, ऐसी सुंदरता का कोई मतलब नहीं है अगर यह स्वयं तक नहीं उतरती है और व्यक्तिगत रूप से प्राप्त होती है। वास्तव में, यह सुंदरता लोगों के आचरण द्वारा और निखारी दी जाती है, और एक ऐसा बंधन बनाती है जो विदेश में रहने वाले भारतीयों की पीढ़ियों के बाद भी टूटना मुश्किल है। मैंने इस सुंदरता को समझने की कोशिश की और यह एकमात्र बिन्दु पर आती है- व्यापक स्तर पर सात्विक दया या परोपकार का भाव।
मैंने 1980 के दशक में बिठूर के गाँवों (कानपुर में गंगा के किनारे) में बालक के रूप में अनुभव किया था। वहां हमारे पास एक छोटा अमरूद का खेत था।
उन दिनों खेत वाले राहगीरों को बुलाकर जिसे लोग बहुत से फल दे देते थे। उन्हें पैसे का कोई मोह नहीं था, बस अपना धर्म मानते थे कि कोई भी आगंतुक खाली हाथ न जाए। आगंतुक मानव, या बैल या पक्षी भी हो सकता था।
दान की यह भावना सर्वव्यापी थी और सात्विक थी। इसे देने वाले को इसे प्रचारित करने के लिए या संपादन करने के लिये किसी ऊर्जा की आवश्यकता नहीं थी।
पिछले दशक में मैंने बहुत यात्राएॅ कीं। सिर्फ यह पाया कि प्रकृति की बहुत हानि हो गयी है। संभवतः इसके साथ ही बाजार की ताकतों ने आम किसान के मन को प्रकृति से हटाकर एक डर पैदा किया, और यह मनोविज्ञान में गहराई तक पहुंच गया। अब तो सात्त्विक दान सीमित हो गया है।
हमारे ऋषियों ने कितनी समझदारी से हमें सुंदर बने रहने के लिए निर्देशित किया: "वसुधैव कुटुम्बकम", या यह दुनिया हमारा परिवार है। मनुष्यों के रूप में, इसने हमें अन्य सभी जीवन के ज्येष्ठ भ्राता के रूप में बहुत अधिक जिम्मेदारी दी।
जैसे-जैसे हमने इस दशन को खो दिया, धरती माता भी हमारे कर्मों का प्रतिबिंब बन गई। नदियों, जंगलों, गायों के शोषण को हमारे पतन से जोड़ना आसान है। हमने उनका उपयोग जारी रखा लेकिन वापस देना भूल गए।
हमारे ऋषियों ने हमें संसार की भी कुंजी दी: "सत्यम शिवम सुन्दरम"। इसके समान विचार उन विभिन्न संप्रदायों और धर्मों में भी मौजूद हैं जो यहां पैदा हुए थे।
हम भाग में भी सुंदरता देख सकते हैं - एक पक्षी का गायन, या एक पौधे का फूल, लेकिन असली सुंदरता सम्पूर्णता को देखने में है। यह विनम्रता और दया के माध्यम से ही संभव है।
हमारे पतन में, कोई यह देख सकता है कि हमने इस मार्ग को अनदेखा कर दिया है। मुझे लगता है कि यह ही शोषण का आधार है। कोई ऐतिहासिक उथल-पुथल को इसका कारण बता सकता है। लेकिन वह भूतकाल में था। और अब इसे मान्यता नहीं देने व पालन नहीं करने का कोई बहाना नहीं है।
मेरी पिछली कुछ वर्षों की यात्राएं यह देखने के लिए थीं कि क्या हम इसे अब पुनर्जीवित कर सकते हैं। मैंने देखा है कि पूरे सूखे हुए पेड़ भी वापस जीवन पा जाते हैं, बस अगर केवल लेशमात्र भी जीवन बचा रहता है और यदि परिस्थितियाँ उनकी मदद करती हैं।
तो इतना निराशाजनक मामला नहीं हो सकता - यह मेरा मानना है।
संयोग से एक बैठक में, श्री गोविंदाचार्य जी ने मुझे सुना और अपने विशाल अनुभव को साझा किया। वह सलाह देते हैं कि हमारे देश में पर्याप्त शक्ति और सज्जन शक्ति है। पहले इसका पता लगाएं, जहां यह दिखाई दे रही है, इसे बाहर लाएं।
यह प्रत्यक्ष मौजूद है - ऋषियों, नदियों, पेढ़ों, व उन आमजनों में जो अभी भी उपरोक्त दर्शन का अभ्यास करते हैं। यह अप्रत्यक्ष रूप में सभी लोगों में है बाद में, जो इसे बाहरी रूप से नहीं देख सकते हैं, लेकिन यह उनके भीतर रहती है और जब बुलायी जाएगी तब बाहर आ जाएगी।
मैंने इस शक्ति के संकेतों की खोज की है, और यह सर्वव्यापी दिखाई देती है। बाजार द्वारा इतने हमलों के बावजूद, लोग इस सज्जन शक्ति को संरक्षित करते हैं। कभी-कभी यह अकेली व असहाय दिखाई देती है लेकिन यह जीवित रहती है।
यह केवल एक सच्चे प्रयास से वापस जीवित हो जायेगी, वैसे ही जैसे कि एक सूखा पेड़ फिर हरा हो जाता है।
यही मेरा भारत दर्शन है। इसकी यात्रा पहले प्राकृतिक सौंदर्य के आकषण से शुरू होकर आध्यात्मिक दर्शन तक आ गई। और अब फिर से उस आध्यात्मिक तत्व की भौतिक अभिव्यक्ति की खोज में लगा हूॅ ताकि प्राकृतिक सौंदर्य भी बरकरार रहे।
विश्वास है कि यह एक बाहरी दुनिया को एक रास्ता भी दिखाएगा जिससे इसी ग्रह पर मानव जीवन सुंदर बने।
10. यहाँ से कहाँ जाना है?
यह भारत दर्शन एक स्थायी लक्ष्य या संसार की एक अवस्था नहीं है जिसे प्राप्त करने की आवश्यकता है, लेकिन एक दैनिक और व्यक्तिगत खोज जो हमेशा चलती रहेगी। इसीलिए इस भूमि को कर्मभूमि कहा जाता है।
जब भी यह दर्शन हमारे विचारों और कर्मों में कमजोर हुआ है, समाज परेशान हुआ है। जब भी यह सर्वव्यापी हुआ है, हमने मानव जाति की प्रगति देखी है। यह देखा जा सकता है कि अधिकांश महान वैज्ञानिक, दार्शनिक, कलाकार, इस दर्शन की नींव पर खड़े हैं, चाहे वे दुनिया में कहीं भी हों।
एक प्रश्न स्व के बारे में है। अगर मैं अपने वर्तमान कर्म के बजाय एक मोची होता, तो भी मैं सुंदरता देख पाता और देता। मैं तब भी उस पक्षी के लिए पानी का एक कटोरा छोड़ सकता था और अपने पुराने पड़ोसी को टहलने के लिए ले जा सकता था। मैं तब भी अपने खाली समय का उपयोग उस बगीचे की टूटी हुई बाड़ को या पड़ोसी के नल रिसाव को ठीक करने के लिए कर सकता था।
एक दिन मैंने देखा कि बच्चे भी पुराने पड़ोसी के साथ सैर के लिए निकल रहे हैं। और वह पानी पीने वाला पक्षी भी कहीं से लायी एक टहनी छोड़कर गया है हालाॅकि अभी मैं उसका उद्देश्य नहीं देख सकता था। चेतना अपना काम कर रही है, और आज के युग में भी इसका काम अच्छे से होता है!
जब मैं स्वयं से आगे बढ़ता हूं, तो मैं अपने नियत कर्म करता हूं। यहां, मैं अरण्यानी की परियोजनाओं पर काम करता हूं, जिनके बारे में मैंने अलग से लिखा है। लेकिन जैसे एक समर्पित मोची अपनी सुंदरता को जूता देता है, और बाहरी दुनिया को इस रिश्ते को प्रभावित नहीं करने देता है, वैसे ही मेरा भी अपने कार्य से रिश्ता है। यह इस दर्शन की नींव पर खड़ा होगा। अगर मैं लड़खड़ाता हूं या गलती करता हूं, तो यह मेरा पतन होगा; मेरा पतन खुद को, दूसरों को और भारत को दुख जरूर पहुंचाएगा, लेकिन यह दर्शन कभी भी नहीं झुकेगा।
क्या इस दर्शन से व्यवहार परिवर्तन द्वारा वर्तमान आर्थिक प्रणालियां और राजनीतिक व्यवस्थाएं बदल सकती हैं?
जैसा कि हम देखते हैं, यह भारत दर्शन पहले से ही व्यापक है और काम पर है, बस यह आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के दायरे से बाहर है।
अलग तरह से देखें तो ये आर्थिक व राजनैतिक प्रणाली केवल एक अभिव्यक्ति है कि हम उन्हें क्या करने की अनुमति देते हैं। इसलिए परिवर्तन मनुष्य के भीतर है। जैसा अधिकांश इंसान चाहेंगे वैसा ही यह प्रणाली बदलेगी।
वर्तमान प्रणालियों की बुराई को बिना पूर्वाग्रह के सोचें तो, इन प्रणालियों को इस आधार पर बनाया गया है कि यह एक निश्चित तरीके से मनुष्यों को संगठित करती है, इस दुनिया की प्रगति और गहरी शोध को सही दिशा देंगी व हमें बेहतर जीवन और सुरक्षा प्रदान करेंगी।
लेकिन अब वे इस धारणा के साथ काम करने लगी हैं कि हम एक प्रजाति के रूप में दूसरे जीवन व संसार से अलग हैं, इसलिए हम अलग से योजना बना सकते हैं। इसी धारणा के विस्तार के रूप में, वे मानव बंधनों को भी तोड़ने के लिए आगे बढी हैं।
और अब यह स्थिति है कि इस मॉडल की भौतिक सीमाएं - शिक्षा, उपचार, उपभोग, प्रकृति के शोषण, आदि के रूप में प्रकट होती हैं।
आजकल बुद्धिजीवियों द्वारा इन समस्याओं पर चिंतन करने का आह्वान, मनुष्यों की चेतना के अनुसार व्यवस्थाओं को व्यवस्थित करने के बजाय एक नए पसंदीदा तरीके से मनुष्यों को संगठित करने की एक बाहरी जरूरत से उपजा दिखाई दे रहा है।
इसलिए, नये मॉडल के विचारों के साथ संघर्ष करने के बजाय, खुद को बदलना सबसे अच्छा है। इस दर्शन परिवर्तन के मार्गदर्शक बनें। मेरा मानना है कि शासन और आर्थिक मॉडल स्वयं और तेजी से बदल जायेंगे।
याद रखें कि बस कुछ ही समय पहले, आधुनिक तकनीक आने से पहले, कराधान प्रणाली न्यूनतम नौकरशाही या बिचौलियों के साथ काम करती थी। कल्याणकारी कार्यक्रम, जल प्रणाली, न्यायिक प्रणाली भी स्थानीय थी व सामूहिक विवेक पर काम होता था। यह बहुत विविधतापूर्ण था।
पर इस प्रणाली को संसाधनों का अकुशल उपयोग माना गया। यह और बात है कि संसाधनों का उत्थान और निर्वाह तब विचार के दायरे में नहीं था।
हथियारों और उद्योग में तकनीकी छलांग ने जनमानस को विविध होने की अक्षमता को स्वीकार करने के लिए मना लिया। फिर यह व्यवस्था चंद हाथों में संसाधनों के एकत्रीकरण की ओर ले गयी।
कई प्रसिद्ध राजनीतिक और सामाजिक सुधारकों ने हमारे देश में इस पर सवाल उठाने की कोशिश की। उन्होंने परिकल्पना की कि इस प्रणाली को सबसे कमजोर व्यक्ति की जरूरतों के साथ जोड़ा जाए, और सुझाव दिया कि ऐसा करने में यह गैर-शोषक बन जाएगी। उनमें से अधिकांश व्यक्ति उच्च पदों पर पहुंच गए, लेकिन उनके सच्चे प्रयास के बावजूद हम ने केवल समाज में गिरावट देखी।
दूसरी ओर, स्वामी विवेकानंद जैसे विचारक मानव के मन को संबोधित करते हैं और इसे सुधारने की कोशिश करते हैं। संभवतः विपरीत दिशा के साथ बहुत बल था, और प्रकृति का फायदा उठाने के लिए ऐसे विचार जो मानव पर जिम्मा डालते थे, केवल प्रशंसा और पुस्तक अलमारियों के लिए छोड़ दिए गए थे।
लेकिन हम फिर से बदलाव की कगार पर हैं। सीमित संसाधनों का शोषण, चाहे वह कुशलतापूवक हो या नहीं, अब संभव नहीं है। मानव फिर से विविधता के प्रति जाग रहे हैं और ग्रह की चिंता में हैं।
बाजार कई सपने दिखाने और नये नेताओं के मायम से इस तड़प से बाहर निकालने की कोशिश करेगा, लेकिन यह रास्ता केवल आत्म - सौंदर्य -दयाभाव- चेतना से होकर ही जाता है।
ऐसा अवश्य ही होगा। हम केवल योगदान कर अपने जीवन काल के दौरान ही देखने की चेष्ठा कर सकते हैं।
जीवन की यह लंबी रात एक अच्छी तरह से बिताया गया समय रहा है - चौदह साल या शायद बीस से तीस साल।
लेकिन अब जीवन का सूर्य ढलने तक दिन को अर्थपूर्ण बनाने की जरूरत है।
3. इंडिया का स्वप्न
मैंने इस आदिवासी गाँव तक पहुॅचने व उससे जुढी घटनाओं और कहानी को अलग किताब में लिखा है जिसका शीर्षक है: 'द डायरी ऑफ ए स्नेक चार्मर'। चूंकि यह लेख एक अन्य विचार के बारे में है, इसलिए वे विवरण यहां प्रासंगिक नहीं हैं। संक्षेप में कहें तो मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी, और हमेशा के लिए यहां बस गया।
जब मैंने यहां कर्मशील होना शुरू किया, तब उद्देश्य तो पूर्ववत् ही था ...प्रगति करोड़पति लक्ष्य के लिए, पर इस बार साधारण झोपड़ी निवासियों के लिए भी मेरे मन ने यह लक्ष्य लागू किया। मेरे पास एक विकसित भारत का अस्पष्ट विचार था जिसका अभी भी पीछा किया जा रहा था।
भौतिक स्तर पर इस विचार का अर्थ भोजन, कपड़े, आदि के साथ शुरू हुआ, लेकिन जल्दी और व्यवाहारिक रूप में अधिक जंक फूड और पेय, अधिक फिल्में, कपड़े का अधिक सेट, यात्रा, पार्टियों, तेज बाइक आदि के रूप में स्थापित हो गया।
सामाजिक स्तर पर, यह मानव समानता और समान अवसरों के साथ शुरू हुआ, लेकिन व्यवाहारिक रूप में आजादी के नाम पर बाजार की पहुॅच , एकरूप शिक्षा और गैर स्थानीय उत्पादों और सेवाओं की खपत को ज्यादा करने में बदल गया।
'उच्च' जीवन जीने का मार्ग, बाजारों से गुजरता हुआ प्रतीत हुआ; बाजार जैसा चाहता था, वैसा ही हर वयक्ति उपभोग करेगा और जैसा कि हम यहां गांव में उत्पादित करते हैं, वैसा नहीं। यही समृद्धि की कुंजी थी। यदि बाजार गेहूं को महत्व देते हैं, तो हमें खेतों में इसे बनाने के लिए पेड़ों को काटना और भारी मशीनरी चलाना होगा। सरकार और नौकरशाही गरीबी से समृद्धि के लिए इस परिवर्तन में मदद कर रही थी।
एक समय था जब इस झोपड़ी में दो बैल, कुछ जानवर थे। यहाॅ रहने वाले अपना खाना उगाने और स्वयं का घर चलाने में ही व्यस्त रहते थे। अब,
समृद्धि के साथ, इनके पास एक ट्रैक्टर था, वह भी सरकार से अनुदान पर, नए नस्ल के बीज, रसायनों के बैग, जल भंडारण और प्रगति के कई ऐसे प्रतीक हो गये थे। इसके अलावा, बच्चों ने पास के स्कूल में जाना शुरू कर दिया, और गायों को खुले घूमने के एवज में सुदाना व एआई (AI)मिलना शुरू हो गया।
लेकिन दो साल के भीतर, मुझे फिर से बेचैनी होने लगी। मैं पहले ही देख सकता था कि बाजार क्यों और कैसे आक्रामक तरीके से पहुंच रहे थे- ट्रैक्टरों पर नरम ऋण को सब्सिडी कहा जाता था, लेकिन यह एक विशिष्ट वस्त्र विक्रेता की चाल थी - लेबल मूल्य में वृद्धि, और फिर बाद में भुगतान किए जाने वाले कूपन के रूप में कुछ छूट दे।
बीज से लेकर शहरी रेस्तरां तक, बाजार मांग पैदा करने और भारत के वादे को बेचने में मिलकर काम करने में लगा था। इसके वेग ने पहले समाज और फिर झोपड़ी की दैनिक प्रथाओं को बदलने को मजबूर कर दिया था।
लेकिन ये नई प्रथाएं हमारी मूल संपत्ति - बीज, भूमि और पानी को नष्ट कर रही थीं। और मुझे लगा कि जल्दी ही या बाद में, हमारे छोटे झोंपड़े के खेत उसी अनाज को बेचने के लिए दूसरे छोटे और बड़े खेतों के साथ प्रतिस्पर्धा करेंगे। हमारा आर्थिक लाभ कम होता जाएगा और अंतत: लुप्त हो जाएगा। यह हमें क्षतिग्रस्त संपत्ति के साथ छोड़ देगा। मुझे लगा कि यह करोड़पति बनने का स्वप्न कुछ शुरुआती और बड़े किसानों को जरूर आगे ले जाएगा, लेकिन बाकी सब को खराब स्थिति में छोड़ देगा।
अर्थशास्त्र के माध्यम से मैं जो महसूस कर रहा था, भूमि से जुढे किसानों ने पहले ही यह अंतर्ज्ञान से यह देख लिया था। अधिकांश चाहते थे कि उनके बच्चे अध्ययन करें, बेहतर अवसर की तलाश करें क्योंकि यह जमीन प्राचीन काल से परिवार की पीढ़ियों का समर्थन करने के बाद अब अस्थिर दिखती थी।
एक दिन, मैंने अपने आदिवासी गाँव के बच्चों को पढ़ाने का फैसला किया, जो 10 साल या उससे अधिक उम्र के बच्चों के साथ शुरू हुआ।
उनका पाठ्यक्रम परिचित लग रहा था- यह लगभग 30 साल पहले स्कूल में पढ़ी गई बातों से मेल खाता था: वही इतिहास, भूगोल और गणित। मैं उन्हें सब कुछ सिखाने के लिए खुश था जो मुझे पता था। धीरे-धीरे मैंने अधिक वरिष्ठ छात्रों के साथ बातचीत शुरू की- लगभग सभी या तो राजनीतिक विज्ञान या नर्सिंग में स्नातक कर रहे थे, क्योंकि ये दोनों पाठ्यक्रम पास के कॉलेजों में आसानी से उपलब्ध थे।
एक दिन, हमारी कई गायों और कई ग्रामीणों को भी फ्लू हुआ। मौसम के बदलाव पर यह स्वाभाविक था। हालांकि, गांव में व्यवहार का दो अलग पैटर्न थे - युवा लोग पास के सोहागपुर क्लिनिक में चले गए, जबकि पुराने हमारे खेत में आए (क्योंकि हमारे पास बहुत सारी जड़ी-बूटियाँ और प्राकृतिक वनस्पतियाँ थीं), और मेरे साथ कुछ चर्चा के बाद, खस, नीम और तुलसी, स्वयं लिया व जानवरों को भी दिया गया।
सुबह तक बाद वाला समूह ठीक था लेकिन युवा लोग अभी भी गोलियों पर थे।
इसने युवा लोगों के साथ मेरी बातचीत की दिशा बदल दी। समय के साथ, मुझे एहसास हुआ कि शिक्षित लोग जानते थे कि कब हल्दीघाटी के युद्ध लड़े गए थे या राज्य का क्या नक्शा था, लेकिन जानवरों को कैसे ठीक करें, या उनके आंगन या जंगलों में पौधों को पुन: उत्पन्न करने और उनके औषधीय मूल्यों के बारे में कोई सुराग नहीं था।
एक ही समय पर दो वर्ग गांव में रह रहे थे- एक जो अपनी संस्कृति, खाद्य पदार्थों और दवाओं के बारे में जानता था, और एक जिसे अपनी संपत्ति के बारे में कोई सुराग व लगाव नहीं था । दुर्भाग्य से, पूर्व वर्ग हर वर्ष कम हो रहा था। और इस प्रकार ग्राम में धन हस्तांतरण की एक प्रक्रिया चालू थी - अनजानी दूर की संस्थाओं को। शिक्षा और स्वास्थ्य के माॅडल इस प्रकिया के कर्णधार थे ।
इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए, बागवानों से लेकर वन विशेषज्ञों तक, सब इसके दलाल बन गए थे। बीज और उर्वरक खरीदने, गेहूं और सोयाबीन उगाने के लिए ट्रैक्टर और उपकरण किराए या ऋण पर लेने , इत्यादि -सब जगह बाजार ने समझ को दलालों द्वारा दी जा रही जानकारी से ढक दिया था।
फिर मैंने शहरी मॉल व बाजार को देखा - दुकानों में ऐसे खाद्य पदार्थ थे जिनमें आधार के रूप में चीनी या गेहूं या सोया था। उन्होंने शहद, बाजरा या मोटे अनाज या महुआ के आटे और दालों की जगह ले ली थी।
यह स्पष्ट था कि एक तरफ गांव की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई थी, और दूसरी तरफ शहरी उपभोक्ता को ऐसी चीजें खिलाई जा रही थीं, जो जल्द ही चिकित्सा समस्याओं को जन्म देगी, जिससे बदले में और अधिक धन का हस्तांतरण होगा।
शिक्षा, स्वास्थ्य और आधुनिक कृषि की त्रिफला साजिश, गांव व शहरी कमजोर घरों से , स्वेच्छा से, बढे पैमाने पर धन हस्तांतरण के लिए एक आदर्श उपकरण था।
ऐसा इस की पहुॅच है (जिसे मैं बिक जाना कहता हूं) कि लोगों को औद्योगिक खेती / हरी क्रांतियों के लिए पुरस्कार मिले हैं, इस चक्र को चलाने के लिए बड़े पैमाने पर सब्सिडी दी जाती है, और सहायक गतिविधियों के लिए लाइसेंस प्रदान किया जाता है।
मैंने खुद से पूछा - मेरी दिशा क्या थी? मैं अंदर से खाली हो गया था - न तो मैं उस महान भारतीय सपने को छोढ रहा था, न ही मैं इस शोषण प्रक्रिया में मदद करने वाला एक और परिवर्तन दलाल हो सकता था।
4. नयी दिशा
मैंने आधुनिक खेती से खराब हो चुके खेत को बहाल करने का काम शुरू किया। पहले मिट्टी में जीवन की खोज करने के लिए, और फिर खाद्य वन बनाने के पुराने स्वप्न ने आकार लिया। हालांकि एक सूक्ष्म स्तर पर ही सही लेकिन इस कार्य का प्रभाव प्राकृतिक जल प्रवाह और अन्य प्राकृतिक प्रक्रियाओं पर भी दिखाई दे रहा था।
ऐसा प्रतीत हुआ कि नदियों के सूखने से लेकर मधुमक्खियों के छत्ते नष्ट होने तक की कई असम्बद्ध समस्याएँ आपस में जुड़ी हुई थीं।
दूसरी ओर, बाजार ऐसे मुद्दों को हल करने के लिए अधिक विस्तारवादी या हानिकारक प्रस्तावों से भरा था।
उदाहरण के लिए, लुप्त हो रही नदियों के मामले में, कोई मुख्य नदी बेसिन के किनारे पेड़ लगाना चाहता था तो किसी और ने नदियों को आपस में जोड़ने की दलील दी। ऐसै उपाय सुझाने वालों के पास कोई ठोस पुराने उदाहरण भी नहीं थे।
इसलिए अधिक जानने के लिए, मैंने कई नदियों का अध्ययन् किया व यात्रायें भी की । इनमें कुछ हिमालय मूल की और कई सतपुड़ा पर्वतमाला से निकली थी। लेकिन सबकी कहानी वही थी: नदियाँ गहरे तनाव में थीं क्योंकि अधिकांश छोटे फीडर नाले मानसून की अवधि के बाहर नहीं बहते थे । इसका एक कारण मूर्खतापूर्ण पुनः पेढ़ रोपण था क्योंकि उन्होंने मूल पेढों जैसे सागौन आदि को काटकर, बांस या कुछ अन्य पेढ जो कि उस जगह के लिये उपयुक्त नहीं था उनको उगा दिया था। इसी तरह की बात हिमालय की नदियों के साथ अंग्रेजों के समय की है, जब निचले हिमालय क्षेत्र में गैर-प्राकृतिक वनस्पतियों की शुरुआत हुई थी। मूर्खतापूर्ण पुन: रोपण से नदियों को बचाने की समस्या बढ़ गई है।
दूसरा बड़ा कारण औद्योगिक कृषि था। भारी ट्रैक्टरों और मशीनों के उपयोग ने कई जल चैनलों को बंद कर दिया, वहीं दूसरी ओर कृषि के पैटर्न में बहुत अधिक पानी की खपत होती है। ट्रैक्टर और रसायनों का एक और प्रभाव यह है कि पानी के छिद्र बंद हो गए हैं। मानसून में खेतों के ऊपर बहुत अधिक पानी बहता है। पहले के दिनों में, यह नीचे चला जाता था क्योंकि प्राकृतिक मिट्टी एक बड़े स्पंज की तरह होती है। इसे केंचुए ऐसा बनाते हैं।
इसलिए, मुख्य नदी बेसिन में कहीं पेड़ लगाने का कोई नतीजा नहीं है। यह केवल समय की बर्बादी है, जबकि कुछ लोग इससे अच्छे पैसे कमाते हैं। लेकिन समय अब कीमती है।
इससे मुझे नदियों को जोड़ने का मुद्दा याद आया। इसे एक और सपने के रूप में बेचा जा रहा है, लेकिन मेरे अनुभव के आधार पर, यह जनता द्वारा भुगतान किया जाने वाला एक और महंगा चेक होगा। मानसून के दौरान, भले ही आंशिक रूप से अच्छा मानसून हो, हमारे सभी जलाशय भर जाते हैं, और मानसून के दौरान नदियां भरी चलती हैं। सामान्य से कम मानसून में भी बहने वाले पानी की मात्रा एक काल्पनिक विशाल लिंकिंग प्रणाली की तुलना में बहुत अधिक होती है। उसपर यह काल्पनिक लिंकिंग प्रणाली यह मानती है कि स्रोत नदियाॅ ग्रीष्मकाल में भी पूरी बह रहीं है, जब ऐसी कोई भी नदी नहीं है।
इसलिए या तो हम अधिक क्षमता स्टोर करने की सोच रखें या प्रकृति में वापस आने की ताकि छोटी धारायें बहने लगें, खेती पानी की कम खपत करना शुरू कर दे और मानसून का पानी मिट्टी के ऊपर नहीं बहे बल्कि रिचार्ज करने के लिए नीचे चला जाये।
इस सभी का मतलब है, हमें प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली चीजों का उपभोग करना है, ताकि नदियों को बचाया जा सके।
अब बाजार ने शहद मधुमक्खियों को गायब करने के लिए एक और उपाय प्रस्तुत किया है - आयातित मधुमक्खी के बक्से।
इस तरह के कार्यक्रम चलाने वाले अर्थशास्त्रियों और संस्थानों द्वारा सभी तरह की पैरवी के बावजूद, मेरी वृत्ति ने इसे नहीं स्वीकार किया। मुझे इसमें लालच के अलावा कोई कारण नहीं मिला। बस एक ही उद्देश्य दिखा कि पहले प्राकृतिक वातावरण को नष्ट करके और फिर उन उत्पादों को बनाना जो छद्म रूप में हैं।
इस विषय पर, एक अंतर्दृष्टि पल में आई जब मैं नर्मदा किनारे यात्रा कर रहा था और डिंडोरी में मालपुर नामक एक छोटी सी जगह पर रुका। वहाँ मैंने पीपल और सेमल के पेड़ों को विशाल छत्तों से लदा देखा। आसपास के क्षेत्र में उनके लिए अनुकूल अन्य परिस्थितियां थीं- ताजे पानी की धाराएँ, बहुत सारे जंगली और अन्य फूल, आदि। प्रकृति मूल्यवान उत्पाद बना रही थी, लेकिन केवल जब निर्णय और नियंत्रण के बिना छोड़ दिया गया हो। दूसरी ओर, खेती वाली भूमि पीपल जैसे पेड़ों से साफ हो गई थी और वही लोग अब बॉक्स शहद उपकरणों की कामना कर रहे थे!
जितना मैं इस कार्य के लिए समर्पित हो गया, यह मेरे लिए समर्पित हो गया। दायरा और पैमाना कई गुना बढ़ गया। मुझे दूर के बढे शहरों से पूछताछ मिलनी शुरू हुई जो लोग कुछ जड़ी-बूटियाँ या प्राकृतिक भोजन चाहते थे। उनमें से कई तो कैंसर या जीवन शैली वाले रोगों या प्रदूषण रोगों से पीड़ित थे, जबकि कई एक विशिष्ट चीज चाहते थे जो केवल खाद्य वन वातावरण में ही उग सकती थी। (मेरे अन्य लेख देखें)
ग्रामीणों ने भी मेरे काम में रुचि लेना शुरू कर दिया और खाद्य जंगल विकसित किया। मैं चुपचाप देखता रहता जब वे अपने पशु के बीमार होने पर खस या घर के लिए जड़ी-बूटी या कच्ची हल्दी आदि ले जाते। यह स्पष्ट था कि उन्होंने प्रकृति के साथ एक खोए हुए जुड़ाव को फिर से खोज लिया था। फिर भी उनके पास अपनी भूमि पर ऐसा करने के लिए इच्छा शक्ति या बाजार का विश्वास नहीं था।
हालांकि, मुझे महसूस हो गया था कि हमें बहुत आगे जाना है। इन खाद्य वनों को स्थायित्व की आवश्यकता थी, जो कि मुख्यधारा बन जाने पर ही सुनिश्चित हो सकती है। अन्यथा वे भी बाजार की मांग से एक दिन कट जाएंगे, और राजनेता और अधिकारी, उच्चतम बोली लगाने वाले के लिये दलालों व ग्रामीण लोग उनके मजदूरों के रूप में काम करेंगे।
यह बहुत स्पष्ट था कि मौजूदा खाद्य मॉडल ने कई प्राकृतिक संपत्तियों को स्थायी संपत्ति के रूप में नहीं देखा था, बल्कि केवल एक बेकार या एक कटौती और बेची जाने वाली संपत्ति के रूप में। एक तरफ इसका उदाहरण पीपल या बरगद का पेड़ है। दूसरी तरफ उदाहरण सागौन या साज के पेड़ हैं, जहां हम भूल गए थहैं कि उच्च उपयोग के लिए उनकी छाया और पानी का उपयोग कैसे किया जाए, लेकिन केवल एक बार काटी गई लकड़ी में ही मूल्य देखते हैं।
(मैंने लंबाई में लिखा है कि कैसे एक पीपल का पेड़ एक सहजीवी वातावरण में एक अद्भुत स्थायी संपत्ति है)।
उस सोच के साथ, मैंने दो और कार्यों को प्राकृतिक खाद्य वन पथ में जोड़ा - एक यह था कि इससे स्थायी मूल्य की खोज की जाए, और दो यह पता लगाना था कि कैसे समुदाय, पास के और दूर के, एक पारस्परिक लाभ के साथ इसके साथ जुड़े हो सकते हैं।
मैंने कुशल प्रशिक्षकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नौकरशाहों, धार्मिक संतों इत्यादि द्वारा बहुविध हस्तक्षेपों को सुविधाजनक बनाया, जो आगे की राह की तलाश में हैं। यह अब तक मिश्रित प्रयोग रहा है और यह प्रयोग जारी है।
सबसे महत्वपूर्ण पहला कदम जैसे खाद्य वन से खस, जढी बुटी लेना, ग्राम वासियों ने स्वतः ले लिया। उसके बाद भी कुछ अन्य कदम प्रयास के बिना लिया गये हैं इसलिए मैं आगे पथ के लिए पदचिह्न देख सकता हूं।
मैंने पौड़ी के ऊंचाई पर भी, कई गांवों में इसी दृष्टिकोण से सोचा, और महसूस किया कि प्रकृति और लोगों का लगाव अभी भी बहुत मजबूत है। एक मौके लगने पर ही लोग एक औद्योगिक रूप से संगठित बाजार के मानसिक बंधनों को तोड़ देंगे और सहजीवी अस्तित्व के मॉडल पर वापस लौट आएंगे।
इस धरती पर कई विचारकों और इतने महान लोगों ने उस रास्ते का प्रदर्शन किया कि कैसे हमारे जीवन का आयोजन किया जाये। फिर भी पिछले पाॅच से सात दशकों में हम लोग केवल इससे दूर जाते गए।
मैं कई धार्मिक गुरुओं से मिला, लेकिन चूंकि मैंने पहले से ही स्वामी विवेकानंद के अद्वैत विचारों में खुद को डुबो दिया था, और यह पहली बार देखा था कि प्रकृति की चेतना कैसे काम करती है, इसलिये मेरे प्रश्न अधिक बुनियादी थे। एक किसान को सबसे अधिक धार्मिक पेड़ यानी पीपल या बरगद लगाने के लिए कैसे प्रेरित किया जाये? गायों को फिर से एक सार्थक जीवन कैसे मिल सकता है?
फिर मैंने कई सामाजिक चिंतकों की ओर रुख किया। उनमें से कई आर्थिक मॉडल के कारण उत्पन्न समस्याओं को हल करने की कोशिश करते हैं, और फिर भी उसी मानसिकता का उपयोग करके काम करते हैं जिसने पहले समस्या को जन्म दिया और पोषित करती है।
देश के अलग-अलग हिस्सों में कई प्रयोग चल रहे हैं, फिर भी एक ऐसा व्यक्ति जो अपने ही पैरों पर खड़ा है, बाहरी मदद से रहित है, मेरी नजर में नहीं मिला है।
कई मामलों में, मुझे गुमराह महसूस हुआ क्योंकि महान इरादे अहंकार या प्रसिद्धि से प्रेरित थे और कोई वास्तविक प्रयोग या काम नहीं था।
इसलिए मैंने अधिकांश स्थानों पर एक रिक्तता लगी, लेकिन मैंने ज्ञान के कुछ महान मोती भी इकट्ठा किए। मुझे पता है कि किसी दिन उनका अर्थ दिखाई देगा जब मेरा मन इसे देखने के लिए तैयार होगा।
कई मामलों में, ज्ञान का एक ही मोती देने वाले के लिए आगे का कोई फायदा नहीं था। इसीलिये मैं समय के साथ चेतना की श्रृंखला को देखता हूं- लोग कुछ ज्ञान को संरक्षित करते हैं जो उनके लिए कोई फायदा नहीं है, लेकिन केवल सही समय पर उसको आगे देने के लिए।
प्रकृति में भी वैसा ही है - कोई भी देख सकता है कि पक्षी पीपल के फल को खाते हैं और सही जगह (मल के रूप में) बीज गिरा देते हैं। इससे कई पीढी बाद मधु मक्खियों व अन्य के रहने के लिए एक इष्टतम स्थान तैयार हो जाता है।
अब तक सब लोग सो चुके थे। उन्हें पता था कि हम एक फिर उसी अंत तक पहुँच चुके हैं, जहाॅ मैं कई बार मन में पहुँच रहा था।
अब मैं मौन में सितारों पर टकटकी लगा सकता हूं और गहराई से सोचने के लिए महुआ के प्रभाव का उपयोग कर सकता हूं।
5. चिंतन:
जब भी अंधेरा गहरा होता है, हमें आशा की किरण के रूप में स्वामी विवेकानंद, गांधी, टैगोर, और बहुत से लोग याद आते हैं जो इस भूमि पर रहे हैं। हम दीनता से महसूस करते हैं कि यही वह स्थान था जहाँ बुद्ध, शंकराचार्य ने चिंतन किया था, जहाँ प्राचीन वेद और अद्वैत दर्शन पहली बार आये थे।
अभी भी आबादी का एक बड़ा प्रतिशत है, जो समझता है कि नदियाॅ हमारी माता होने के नाते, पूजानीय हैं, और प्रत्येक तत्व और प्रकृति को हमारे स्वयं के कल्याण के लिए सम्मान देना है।
फिर भी जिस क्षण हम उन गंभीर विचारों से बाहर आते हैं, और व्यावहारिक जीवन में वापस आते हैं, तब हमारा व्यवहार और उपभोग इन विचारों से काफी भिन्न हो जाता है।
पिछले कई वर्षों में, मैंने जीवन के अधिक सरल सम्पूर्ण व प्राकृतिक तरीके की खोज में, कई अलग-अलग प्रयोग किए। इसमें सेल्फ हीलिंग, वन थेरेपी, वैकल्पिक स्कूली शिक्षा और सहभागी प्राकृतिक खेती और सामुदायिक सेवा शामिल थी। मेरा मानना था कि यह प्रयोग, अवधि या फोकस क्षेत्र से परे बड़े व्यवहार परिवर्तन को प्रेरित करेगा। हालांकि, यह कुछ व्यक्तियों को छोड़कर ज्यादातर व्यर्थ साबित हुआ। वैसे भी उनमें से अधिकांश इन प्रयोगों में शामिल होने से पहले ही बदल गए थे।
जैसे ही इन प्रयोगों का प्रभाव खत्म हो गया, लोग विनाशकारी प्रथाओं पर वापस लौट आए। कुछ मामलों में बाजार की पसंद की आभा बहुत बड़ी थी, जबकि कुछ अन्य में यह एक परीक्षण था जो उनके मन को और नहीं पकड़े रह सकता था क्योंकि इसको पालन करना मुश्किल था।
इसलिए मुझे लगता है कि एक ऐसा बदलाव लाना जो प्रकृति के और मनुष्यों के शोषण को रोकता है, बाहरी परिवर्तनों के माध्यम से संभव नहीं होगा।
उदाहरण के लिए, लोग जोखिम मुक्त अवसर उपलब्ध होने पर भी चोरी नहीं करते हैं, क्योंकि वे मूल्य प्रणाली या धार्मिक पाठ में विश्वास करते हैं। संविधान या दंड की बाहरी किताबें बुनियादी मानव व्यवहार को लागू करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
मैंने यह भी महसूस किया कि हमारे देश में कई लोग, विशेष रूप से अधिक उम्र के लोग, जितना संभव हो एक प्राकृतिक जीवन शैली का पालन करते हैं। जितना कम से कम विनाश करके और अधिकतम देना वे कर सकते हैं, वे करते हैं। वह भी प्रेमभाव से।
इसलिए परिवर्तन को अंतर्मन से आना पड़ता है, और यह वह जगह है जहां बाजारों में प्रवेश किया है।
कोई यह कह सकता है कि मनुष्यों को आसानी से भय या लालच द्वारा वांछित उपभोग और संबद्ध व्यवहार के लिए प्रेरित किया जा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि उस लालच या भय को कौन पैदा कर रहा है?
प्रकृति और अन्य जीव इसे पैदा नहीं कर रहे हैं। प्रकृति ज्यादा से ज्यादा मृत्यु का भय पैदा कर सकती है, लेकिन साथ ही साथ अगली पीढ़ियों के लिए त्याग और संरक्षण की भावना भी पैदा करती है, और अधिक उपभोग करने का लालच नहीं।
हर पल प्रकृति में मृत्यु व जीवन के निर्माण को देखकर, मैंने जाने और आने के चक्र के साथ स्वयं को एक महसूस किया है।
तो डर और लालच पैदा करने की जिम्मेदारी इंसानों पर ही आकर रुक जाती है। मैंने इसे अकेले में इंगित करने की कोशिश की, लेकिन बहुत सारे उदाहरण हैं जहां सबसे अधिक स्वार्थी मनुष्य भी कभी कभी ऐसी निस्वार्थ भावना प्रदर्शित करता है। यह दिखाता है कि कोई भी मानव आसानी से लालच व डर से ऊपर उठ सकता है।
जब मैं स्वयं से परे जाता हूं, तो वह परिवार होता है, जो समाज से अपने डर और लालच को उधार लेता है, जो बदले में इसे कहीं और से ले रहा है। पोस्टरों, अखबारों और चैनलों से चिल्लाते हुए लालच और भय का एक पूरा संसार है। उसमें बहुत गंभीर संदेश भी शामिल हैं जैसे एक प्रतिशत कम आना या एक स्कूल में न प्रवेश पाना, स्वास्थ्य की लागत, गरीबी में परिवार को पीछे छोड़ मृतयु हो जाना, आदि।
फिर इसमें बहुत तुच्छ संदेश भी हैं लोगों के लिए जैसे कि दुनिया में सबसे सफेद शर्ट पहनना या सबसे महंगा बैग लेना ईत्यादि बेतहाशा मूर्खतापूर्ण संदेश।
ये सभी संदेश मानव कृति ही हैं - जो बहुत लोगों से लाभ लेकर, चन्द लोगो को लाभ पहुॅचाते हैं।
मनुष्य इन प्रेरित भय और लालच में क्यों भाग लेते हैं? मुक्त बाजार एक सुंदर अवधारणा है, लेकिन सिर्फ जब बाजार, प्रायोजित व्यवहार पूर्वाग्रह या सूचना अंतराल से मुक्त होते हैं।
प्रायोजित बाजार ऐसे रोल मॉडल बनाते हैं जो लोगों को महान लोगों से भीअधिक प्रेरित करते हैं।
एक उंगली ने मेरी तरफ इशारा किया! बस कुछ IITians या IIM या IAS लोगों या सीनेटरों या पैसे वाले कलाकारों और उनकी आर्थिक सफलता (जो कि मौद्रिक श्रृंखला का एक छोटा प्रतिशत था) को दिखाते हुए, पूरे समाज को अप्रासंगिक विषयों और शिल्पों को पढ़ने के लिए आश्वस्त किया जाता है। और ऐसै जीवन और शिक्षा से विमुख करा जाता है जो उन्हें आत्मनिर्भर और गौरवान्वित रखे।
ये तो महज रोल मॉडल हैं- कुछ लोगों के जो अच्छे खेले और पुरस्कृत हुए, और अब जनता को लुभाने के लिए दिखावे के हैं। सवाल तो यह है कि अगर पहले से मौजूद हालात अच्छे होते तो लोग क्यों इनको देखकर फुसला जाते?
शोषण की एक लंबी अवधि - लिंग उत्पीड़न, जमींदारी, भेदभाव, ने शायद ऐसी परिस्थितियां पैदा कीं, जहां यह नामहीन, चेहराहीन बाजार और स्वतंत्रता का वादा आकर्षक लग रहा है।
जैसे जैसे पुराने शोषण खत्म होते गए, मन ने भयभीत और लालची होने के नए तरीके सीखे। ये बहुत ही भले लगते हैं क्योंकि वे मजबूरी की बजाय अपनी पसंद से आते हैं।
क्या इन आदत बन चुके विकल्पों को दूर किया जा सकता है? क्या इसकी जरूरत है? क्या एक बेहतर परिणाम संभव है?
मैंने इतने लोगों को पहले से ही लालच और डर के इन विकल्पों से परे रहते देखा था। दुर्भाग्य से, मेरे संपर्क में आने वाले कई लोग बुरी घटनाओं से प्रेरित थे। बुरा अनुभव एक व्यक्ति को सभी मानसिक संपत्ति को फेंकने की शक्ति देता है- एक कैंसर या उसके बाद अस्तित्व को बनाए रखने की लढाई, एक निरंतर शैक्षणिक या कैरियर की विफलता, अकेलापन, आदि।
लेकिन इनके अलावा भी बड़ी संख्या में लोग अभी भी इस प्रतिमान से अप्रभावित रहते हैं। उदाहरणतः हमारे देश में पुरानी पीढ़ी के अधिकांश लोग अभी भी छोटे कामों, दैनिक कामों को देने की भावना से करते हैं , साथी जीवन और प्राणियों की देखभाल कर रहे हैं। उनका लालच या डर स्व-संरक्षण तक ही सीमित है।
फिर हर दूसरे घर में संतजन हैं, और हम में से हर एक में वह मानव है जिसे प्रकृति इतनी आसानी से पुकारती है जब एक छोटा पक्षी पेड़ से गिरता है या पौधे को मदद की ज़रूरत होती है।
यह मुझे विश्वास दिलाता है कि एक बेहतर दुनिया न केवल संभव है बल्कि इसका निर्माण करना आसान है।
क्या इसकी जरूरत है?
हाँ, पहले से कहीं अधिक और तत्काल। हमने मिट्टी, वनस्पतियों, सभी प्रकार के जानवरों के जीवन को समाप्त कर दिया है और पानी के प्रवाह और वायु की गुणवत्ता को कम करते चले गए हैं।
मनुष्य प्राकृतिक प्राणी है और प्रकृति से अलग-थलग नहीं हो सकता। प्रकृति को चर्चाओं में हरियाली तक सीमित कर दिया गया है, लेकिन यह अदृश्य के बारे में अधिक है - ऐसी प्रक्रियाएं और भौतिक रूप जो दिखाई नहीं देते हैं।
इन प्रक्रियाओं को सूचीबद्ध करना मेरी क्षमता से बहुत परे है, क्योंकि अभी तक विज्ञान भी वहाॅ पहुॅचा नहीं है। मुख्य रूप से हम जो कुछ भी जानते हैं, उसमें जीन से लेकर एक बीज तक और फिर उस बीज के चक्र में बहुत प्रक्रियाएॅ शामिल हैं जो ऊर्जा स्रोत के उपयोग को अधिकतम करते हैं। फिर
सूर्य का चक्र, समुद्र से ग्लेशियरों तक पानी का प्रवाह (हमारे देश में मानसून के माध्यम से), हवा के घटकों के ठीक संतुलन का प्रबंधन जो जीवन को संभव बनाते हैं, मिट्टी का निर्माण करते हैं जो जीवन के छोटे रूपों का पोषण करते हैं और जीवन के बड़े रूपों को धारण करते हैं।
मानव व प्रकृति के संबंधों पर एक नज़र - सूर्य के प्रकाश का उपयोग करके विटामिन डी का निर्माण; हमारे भीतर हवा और पानी के निरंतर प्रवाह; सूरज, मिट्टी, हवा और पानी से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का संबंध, इत्यादि ।
जब हम किसी भी कारण से इन प्रक्रियाओं से टूट जाते हैं या छेड़छाड़ करते हैं, तो हम अप्राकृतिक हो जाते हैं। हम प्रकृति से वंचित होने लगते हैं और इसलिए दुखी हो जाते हैं।
दवा और प्राकृतिक / दर्शनीय स्थानों की यात्रा जैसे अस्थायी उपचार केवल अस्थायी तौर पर ही काम करते हैं। यह हमारी खालीपन की भूख को और बढ़ाते हैं जो प्रकृति का अधिक शोषण करवाती है।
इस लिहाज से मौजूदा बाजार को यह पसंद है। लेकिन इस तरह जीवन को जारी रखना अब संभव नहीं है। आगे का रास्ता बनाना होगा।
मेरे लिए आगे का रास्ता एक ही प्रकट होता है - लालच और भय से प्रेरित खराब विकल्पों को दूर करना।
क्या ऐसा करने के लिए बहुत साहस या बल की आवश्यकता होती है?
जैसा कि पहले देखा गया था, बहुत से लोग सत्य या जीवन और प्रकृति के प्यार के लिए, इन आदतों को टोपी की तरह छोड़ने में सक्षम होते हैं और कभी भी पथ से पीछे नहीं हटते हैं। इसलिए मनुष्यों के भीतर कुछ सरल है जिससे हमारे व्यवहार में बदलाव लाने वाली शोषणकारी ताकतें हार सकती हैं।
आइंस्टीन का वाक्य मेरे दिमाग में गूँजता है, "कोई भी समस्या चेतना के उसी स्तर से हल नहीं हो सकती है जिसने इसे बनाया है।"
इसलिए यदि हम वास्तव में बदलाव चाहते हैं, तो यह मौजूदा आदतों से पैदा नहीं होगा।
यहां, मैं अपनी आँखें बंद कर लेता हूं। थोड़ी देर के लिए सितारों से दूर, और सरल दैनिक जीवन की चीजों के बारे में सोचता हूं जिन्होंने हमें प्रभावित किया है। मैंने अद्वैत दर्शन के उच्चतम मार्गदर्शक सूत्रों के बारे में भी सोचा, क्योंकि सभी उत्तर पहले से ही वहाँ खड़े हैं, समय में जमे हुए।
6. सौंदर्य
जिस क्षण मन स्वयं से आगे देखना शुरू करता है, वह पहले स्वयं के और अपने सौंदर्य के विस्तार की खोज करता है। उस सुंदरता को परिभाषित करना इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वह स्वयं को संपूर्ण का एक हिस्सा मानता है या स्वच्छंद मानता है। मैंने महसूस किया है कि एकात्म भी भी देख पाना आसान है, लेकिन अधिकांश मानव शिक्षा और सामाजिक प्रणालियों ने स्वच्छंदता के लिए दिमाग पर काम किया है (न कि स्वतंत्रता के लिये) क्योंकि एकात्म से बिचौलियों व शोषण समाप्त हो जाते हैं।
एक बार अपनी स्वच्छंदता के प्रति आश्वस्त होने के बाद, मन सुंदरता को परिभाषित करने और नियंत्रित करने की कोशिश करता है। यदि कोई चीज सुंदर है, तो उसे प्राप्त करना सफलता बन जाती है और उसे खोना असफलता बन जाता है। यदि कोई चीज बदसूरत है, तो उसे हराना सफलता बन जाता है। यही से लालच और डर का संपादन होता है। यही कारण है कि जब व्यक्ति स्वच्छंदता के बहाने बाजार को आजादी सौंपता जाता है तो शोषणकारी ताकतें ही प्रभावी रूप से बाजार का उपयोग करती हैं।
सफलता के कई लक्ष्य अलग-अलग उम्र और वर्ग के लिए परिभाषित होते हैं। प्रत्येक लक्ष्य दूसरे से स्वतंत्र होने के कारण, कई सूत्रों या बाजार के कई अवसरों को बनाता है। कई बार लक्ष्य भी जल्दी बदल दिया जाते हैं। ऐसा अधिक लाभ प्राप्त करने या थकान को दूर करने के लिए किया जाता है, कि कहीं ऐसा न हो कि व्यक्ति को इसकी निरर्थकता का एहसास हो जाए।
एक समय था जब पुष्ट लड़कियां दुनिया भर में सुंदर थीं, अब जंक खाद्य पदार्थों के प्रसार के साथ, पतला होना और अधिक सुंदर हो गया क्योंकि पुष्ट शरीर को प्राप्त करना अब आसान है। यह एक संयोग नहीं है इसी के साथ अनाज और फलों पर उलटे मापदंड चलन में आ गए।
गोरे को धनी के रूप में प्रचारित किया गया, और इसलिए सुंदर; इसलिए हमारे पास एक नया पैरामीटर था। मुझे शिक्षा और स्वास्थ्य बाजार के बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है। गांवों में, एक समय में पेढों से छायांकित खेत सुंदर था। लेकिन एक बार भारी मशीनें और ट्रैक्टर बाजार में उपलब्ध हुये तो केवल गेहूं और उसके सोने के रंग के साथ सादे खेत, समृद्धि और इसलिए सुंदरता का प्रतीक बन गए। यह दुख की बात है कि ग्रामीणों को अब गांवों में जैव-विविधता या पीपल, नीम जैसे पेड़ों में कोई उपयोगिता या सुंदरता नहीं दिखती है, लेकिन केवल कुछ हानिकारक फसलों के पीछे ही भीढ़ चलती है।
वास्तव में, प्रकृति की विविधता द्वारा प्रदत्त गुणकारी चीजें, मानव आत्मा के लिए खुशी और सीखने का एक बड़ा स्रोत हैं।
शोषणकर्ता इस बात से ईर्ष्या करते हैं। इस आकर्षण को दूर करने के लिए और अपनी छद्म विविधता के उथलेपन को छिपाने के लिए, बाजारों ने कई चालें चली हैं। ब्रांडों और आकारों और मिश्रणों की विविधता की कोशिश की है। यह निर्णय लेने और चुनने की शक्ति का अहसास जरूर देता है, लेकिन चाहे वह गेहूं का आटा हो या ऋण या स्कूल, इन सबका स्रोत एक उथली गैर विविध प्रणाली है।
सुंदरता का एक और पहलू, हमारे समय का प्रकृति के समय के साथ तालमेल होना है। यह हमें रात को, सर्दियों में और चरम मौसम होने पर धीमा होने का संकेत देता है, और मौसम और दिनों की ताल का आनंद लेने को कहता है।
जैसा कि महान दार्शनिकों ने दिखाया है, इसका मतलब यह नहीं है कि मानव जढ़ हुआ जाए, बल्कि यह तो अधिक अनुभव करने और अधिक सोचने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन बाजार इसे पसंद नहीं करते हैं। विकास अब एक बहुत ही भौतिक शब्द है और जीडीपी जैसे मौद्रिक मापदंड इसका एक पैमाना है। और यह पैमाने प्रकृति की गति से संघर्ष करते हैं।
प्रगति या विकास गलत तरीके से सुंदरता का पर्याय हो गया है और इसके प्रमाणस्वरूप उच्च खपत होती है।
एक संतोषी व्यक्ति जो साधारण मटमैले कपढ़ो में कठोर परिश्रम करता हो, उसे एक अच्छे इंसान के रूप में तो सराहा जाता है, लेकिन अब वह अपने बच्चों के लिए भी प्रेरणा या सुंदरता का स्रोत नहीं है।
इसलिए, किसी भी व्यक्ति द्वारा दूसरों को खुशी देने की बात, या मानव उपभोग को प्राकृतिक बनाने की बात या बाजार को शोषणरहित बनाने की बात, तब तक खोखली हैं जब तक कि उस व्यक्ति का सुंदरता का बोध शुद्ध नहीं हो जाता। ऐसा हो जाने पर तो व्यक्ति किसी भी सौंदर्य को उसकी पूर्ण विविधता के साथ आत्मसात करने के लिए तैयार होगा। उसके लिये
एक भिखारी के गंदे पांव भी महंगे जूते पहने साफ पैरों की तरह ही विशिष्ट या आम होंगे। हालाॅकि मेरे लिए, भिखारी के पैर निश्चित रूप से अधिक सुखद हैं क्योंकि मुझे महंगे जूतों में प्रकृति की हानि दिखाई देती है।
मैं सुंदरता पर ओशो के शब्दों को भी उद्धृत करता हूं: "संवेदनशीलता बढ़ने की कोई संभावना नहीं है यदि सुंदरता को सम्मान, सराहना, आनंद नहीं मिलेगा। उसके बिना आपकी सारी संवेदनशीलता मर जाएगी…। मेरे लिए, सुंदरता सच्चाई से कहीं अधिक मूल्यवान है। सत्य केवल सौंदर्य का एक पहलू है, सौंदर्य का एक चेहरा। सौंदर्य स्वयं भगवान है। यदि आप सुंदरता के साथ प्यार में हैं तो आप कुछ भी गलत नहीं करेंगे - यह पर्याप्त सुरक्षा है - क्योंकि कुछ भी गलत करने के लिए आपको कुछ बदसूरत करना होगा। "
7. परोपकार या दयालुता
हम अपने अंदर और इस दुनिया में सुंदरता को कैसे बढ़ाना शुरू करते हैं?
सुंदरता स्वतः परोपकार की ओर ले जाती है और परोपकार सुन्दरता की ओर। परोपकार या दयालुता, सुंदरता को देख पाने करने का एक आसान तरीका है।
यहाँ मुझे दो घटनाओं को याद करना चाहिए-
एक बूढ़े सज्जन जो काफी उदास थे, ने मुझे एक मेल लिखा। उनकी पत्नी का निधन हो गया था और बच्चे विदेश में थे, और उन्हें एकाकीपन हो गया। वह जीवन के बारे में उदासीन हो गए थे और इसमें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उन्होंने वृद्धाश्रम में रहने की कोशिश की थी, और समुदाय को लाभ पहुंचाने के लिए समूह की गतिविधियों में भी भाग लिया, लेकिन जल्द ही अपने एकांत में वापस आ गए क्योंकि इससे भी वे नकारात्मकता से छुटकारा नहीं पा सके थे।
मैंने महसूस किया कि उनका जीवन बहुत ही स्वार्थी लक्ष्यों को पूरा करने में बीता है, चाहे वह अपने बच्चों या परिवार के लिए हो। अब वही स्वार्थ अंधा कर रहा था और इस परेशानी का कारण बना।
मैं इस तरह के मामलों में एक पेशेवर सलाहकार नहीं हूं, परन्तु बुजुर्ग को मुझसे कोई निदान की बहुत उम्मीदें थीं। मैंने बस उनको दो हफ्तों के लिए दो चीजों में से किसी एक को करने के लिए कहा- एक गली के किसी जानवर की देखभाल करें जिसे देखभाल की आवश्यकता है, या पास के बगीचे में जाएं और एक नए पौधे की देखभाल करें। उनको पसंद तो नहीं आया फिर भी मैंने उनको एक सप्ताह ही करने को मनाया।
उन्होंने दोनों किया। पहला हफ्ता स्वेच्छा से चला गया और फिर दूसरा भी। कुछ हफ्तों के बाद, यह समय आ गया कि पिल्ला बड़ा हो गया था और स्वच्छन्द रहने लगा। इस बार उन्होंने उसे बिना बंधन के जाने दिया। पौधों का ऐसा समय भी आ जाएगा।
लेकिन यह छह सप्ताह शानदार रहे थे और अब मन और अधिक यह अहसास चाहता था। मुझे यकीन है कि दुनिया की सुंदरता अब उसे बुला रही थी।
एक अन्य घटना में, एक युवा महिला जो बहुत बुद्धिमान थी, वह अपने स्वभाव को रोक नहीं पाती थी, बहते बहते उत्तेजित हो जाती। मनोचिकित्सकों ने उसकी स्थिति को एक मानसिक विकार के रूप में पहचाना और शांत रखने के लिए उसे दवाएं दीं। जल्द ही माता-पिता ने देखा कि वह केवल उन दवाओं के प्रभाव में ही सामान्य थी, अन्यथा और अधिक उत्तेजित हो जाती थी। उन्होंने उसे वैकल्पिक उपचार स्थानों पर भेज दिया। वहाॅ काफी सुधार भी हुआ लेकिन अभी भी पूर्णतः कोई समाधान न था। कभी कभी परिस्थिति आ जाती थी जब वह अनियंत्रित हो जाती थी।
वह इसके विषय में काफी जागरूक थी लेकिन उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकती थी। कुछ इत्तेफाक से मेरा परिचय उस परिवार से हुआ।
माता-पिता पश्चिमी विचार और मनोविज्ञान के माध्यम से इसका विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन मुझे लगा कि पश्चिमी विचार, सिर्फ शरीर और दिमाग पर ध्यान केंद्रित करने तक सीमित है। वास्तव में, यह अधिकांश शारीरिक बीमारियों को मानसिक विकारों से जोड़ने की कोशिश करता है और भौतिक स्तर पर ही इलाज ढूंढ़ता है।
यहां तक कि मानसिक से शारीरिक इलाज तरीके की प्रक्रिया भी नहीं है उनके पास। जबकि तर्क ही बोलते है कि यदि दो चीजों के बीच डोर है तो दोनों तरफ से खींचना संभव होना चाहिये।
और आत्मा और चेतना पश्चिमी तंत्र के दायरे से बाहर हैं। मुझे लगा हमें वहां देखना चाहिए।
आत्मा दया के अलावा और कुछ नहीं है। इसमें शरीर, मन और चेतना को लय में बाॅध कर रखने की ताकत है।
(मैंने यह भी महसूस किया कि उसे क्या परेशान कर रहा था, लेकिन वह यहां का विषय नहीं है; प्रकृति और दर्शन के साथ लंबे समय तक संबंध एक अलग तरह के अहसास पैदा कर देता है)।
तो सरल उपाय दयालुता को मजबूत करना था। लड़की की पसंद के साथ ही दयालुता के विषय को चुना गया किया गया। अब उसे अपना ध्यान इस विषय की सेवा में लगाना था।
इस तरह के मजबूत सुरक्षात्मक आवरण के साथ, उसने मानसिक लहरों को संभालना सीख लिया है। इसके कारण वह एक योगिक क्रिया व ग्रह उपाय भी स्वयं कर गई।
ऐसी दया की क्षमता है। मेरे लिये दया का अर्थ है, निस्वार्थ, स्वयं को छोड़ देना। इसका मतलब समाज का मार्गदर्शन करना या उसके लिये काम करना बिल्कुल नहीं है।
इसीलिए, मैं कॉर्पोरेट तरह की दयालुता और इसे प्रोत्साहित करने वाली सरकारी नीतियों का समर्थन नहीं करता। मौद्रिक दान तो हृदय परिवर्तन को तुच्छ बना रहा है। यह एक नया विचार पैदा करता है कि सामाजिक कार्य (वित्तीय श्रृंखला द्वारा संचालित) दयालुता का तरीका है। फिर, किसी को इस कार्य, समाज पर इसके प्रभाव और मापदंडों को परिभाषित करना होगा। फिर नियंत्रित करना होगा। इन सबमें देने का विचार कहां है?
दुर्भाग्य से, सरकारों, कॉर्पोरेट और नौकरशाहों, यहां तक कि धार्मिक समूहों को भी लाभार्थियों से अधिक इन कार्यक्रमों की आवश्यकता है। सामाजिक परोपकार की आड़ में विचारों, आदतों और प्रेरित व्यवहारों को बदलना आसान है। ऐसे कार्यक्रमों में एक अंतर्निहित दिशा होती है जो शोषक बाजारू बलों से मुक्त नहीं होती है।
इसीलिये, मैं झुंड की सक्रियता या किसी भी सामाजिक अभियान को समथन नहीं करता, भले ही वे अच्छे इरादों के साथ हों। यह तमस व रजस के साथ व्यक्तियों को आंतरिक दया से विमुख करते हैं। मेरा मानना है कि दयालुता का उद्गम व्यक्ति की चुप्पी और भावनाओं में है, न कि प्रचार में।
पहले के समय में, जब कोई भिक्षा मांगने के लिए दरवाजे पर आता था, तो दाता को बाहर आकर देना पड़ता था। और साधक को विनती करने की आवश्यकता नहीं थी, बल्कि अधिकार था। देने वाले को यह अधिकार था कि वह उसके पास जो कुछ है वही दे, पर उसे दूसरों से इकट्ठा न करे।
यह एक सात्विक कार्य था, जिसे देने वाले से कोई ऊर्जा की आवश्यकता नहीं थी और इसलिए ऋण लेने और उधार लेने का कोई बोझ नहीं था।
कभी-कभी साधक दानकर्ता की गरीबी को देख सकता था, और उसपर इसे उपयोगी बनाने के लिए एक दबाव होता था।
इस तरह की संस्कृति ने महान दर्शन को लिखने की अनुमति दी, महान विश्वविद्यालयों का निर्माण किया गया। सामान्य लोगों के दान पर बढ़ने वाले साधकों के पास कोई भौतिक सामान नहीं था, लेकिन शक्तिशाली राजाओं पर सवाल उठा सकते थे।
इसने किसी को भी आयोजन एजेंसी के रूप में कार्य करने की अनुमति नहीं दी। व्यक्तियों को पूछना पड़ता था, व्यक्तियों को देना पड़ता था।
दोनों एक दूसरे को जानते थे क्योंकि यह एक नियमित प्रक्रिया थी।
पश्चिमी विचारों ने दयालुता के हमारे विचार को दूषित कर दिया है।
हम बहुत दूर दान देते हैं, और इसके लिये माध्यमों की आवश्यकता पढ़ती है। यह हमें उस आत्म रोशनी से वंचित करता है जो किसी जरूरतमंद से सीधे जुढ़ने से आती है।
और यह जरूरतमंदों से भी छुपाता है कि इसने इसे देने के लिए दानकर्ता ने क्या कर्म किये।
सोचिए कि दशकों के बाद यह स्थिति कैसे आई कि इतने लोग वित्तीय व्यवस्था के किनारे पर चले गए?
यदि वे इस प्रणाली में लाभकारी पक्ष में नहीं हों, तो क्या मददगार हो सकते हैं?
मेरा मानना है कि दानकर्ता, वित्तीय संसाधनों (जो भी रूप में) का उपयोग किए बिना मदद दें तो बहुत अधिक प्रभावशाली हो जाएंगे।
यह दानकर्ताओं के वर्तमान दिमाग को एक चुनौती देता है लेकिन एक नया प्रतिमान खोलता है।
आइंस्टीन ने कहा था, 'वही स्तर की चेतना जिसने समस्या पैदा की है, उसी चेतना से समस्या हल नहीं की जा सकती है।'
जो मौद्रिक शक्ति परोपकार को ईंधन देने के लिए एकत्र होती है, उसका भुगतान तो अधिभार सहित भूत या भविष्य में, सबसे कमजोर वर्ग द्वारा ही किया जाएगा।
इसलिए, दयालु व्यक्तियों द्वारा सौंदर्य अनुभव तभी किया जाता है, जब बिना किसी अन्य प्रणाली से लेकर, वह दिया जाये जो स्वजनित हो। ऐसा दान तो पदूर तक एक एहसास या लहर के रूप में यात्रा करता है।
यह व्यक्तिगत बल ही हमें एक खूबसूरत दुनिया में बदल सकता है। इसे मैं सात्विक दान कहता हूं।
8. चेतना
दयालुता व्यक्ति को संसार की सुंदरता के दर्शन करा सकती है लेकिन दयालुता दुनिया को कैसे बदलती है? दयालुता का पहला कार्य कहाँ से शुरू करें?
परोपकार घर से आरंभ होता है; इसलिए उपकार की शुरुआत भी खुद से करनी होगी।
हम नश्वर प्राणी हैं, और यह एक आशीर्वाद है। हमें पहले खुद पर उपकार करना चाहिए। हमारी चाल हमारे लक्ष्यों की सनक और ख़ुशियों पर नहीं निर्भर होनी चाहिये। सारे लक्ष्य तो हमसे पहले या बाद में नष्ट हो ही जाएंगे।
तो हमें अपने समय की चाल को प्रकृति की चाल से मिला लेना चाहिये। धीमे चलना है या तेज़ी से आगे बढ़ना है यह प्रकृति हमें बताती जाती है।
हमें अपनी अवस्था का भी सौंदर्य देखना होगा। उसको दूसरों या समाज के आर्थिक या भौतिक मापदण्डों से ऊपर उठकर देखना होगा। दूसरों के कुवाचारों का प्रभाव से अपनी दयालुता को आहत न करें। उन्हें उपचार की आवश्यकता है, शायद आपके माध्यम से।
स्वयं के आगे हमारी दयालुता को तत्काल अपने परिवार तक पहुंचाने की जरूरत है। एक बच्चा जो खुश है परन्तु इस शिक्षा प्रणाली में लेकिन असफल हो रहा है, वह संसार के लिये एक आनंद है। उसकी किसी संवेदनहीन आक्रामक विजेता से तुलना मूर्खता है। एक छोटे जानवर या एक संघर्षरत पौधे के प्रति दया का भाव इस सचेत संसार में संदेश भेज देता है। निश्चित रूप से यह संसार आपके पास पहुंचने की कोशिश करेगा।
मैं इतने सारे प्रबुद्ध लोगों-संतों, मानवतावादियों, वैज्ञानिकों और गणितज्ञों के जीवन में चेतन संसार द्वारा भेजे गये अनुग्रह को देखता हूं। उनके द्वारा साझा किए गए एक से एक बेहतर उदाहरण हैं, लेकिन यहां मैं अपने सामान्य अनुभव को साझा करता हूं।
जब मैंने पहली बार मिट्टी को फिर से स्वस्थ और जीवन से भरा हुआ बनाने के लिए काम शुरू किया था, तो विचार यह था कि केंचुओं को रहने और काम करने के लिए एक अच्छी जगह मिल जायेगी। एक बार मिट्टी तैयार होने के बाद मैंने कई पौधे भी लगाये। विश्वास था कि वे मिट्टी की मदद करेंगे और गर्मी व ठंढ से केचुओं का बचाव करेंगे।
एक व्यक्ति जल्द ही अपने शारीरिक प्रयास की सीमाओं का एहसास करता है। कई नीम व अन्य पौधे जो मैंने भविष्य की हरियाली के लिए लगाए थे, वह जीवित नहीं बचे क्योंकि उनकी समय पर देखभाल नहीं की जा सकी, और उनको बचाने के लिये मिट्टी हर जगह जीवित नहीं थी।
पहली गर्मी के बाद मुझे लगा कि यह एक लंबा संघर्ष होगा।
लेकिन प्रकृति इस प्रयास को देख रही थी। जहाँ कहीं भी मिट्टी थोढ़ी भी नम बची थी , वहाॅ अपने आप ही बढ़े पेढ़ों के पौधे आ गये। कुछ बीज स्वयं हवा में बहकर आ गये थे तो कुछ नीमफल खाकर पक्षी गिरा गये थे। उन पौधों की पत्तियों को खाने के लिए, बहुत सारे हिरण और गाय आए। उन थोढ़ी सी अलग-अलग पत्तियों के बदले में, उन्होंने वहाॅ खाद को गिरा दिया जिससे जमीन पर गर्मी में भी नमी बनी रही।
जब मैं मानसून में फिर से काम करने के लिए आया, तो मुझे लगा कि इस क्षेत्र को बहुत मदद की जरूरत नहीं है। प्रकृति ने खराब हुए पौधों की भरपाई भी कर दी थी, और गर्मियों की सूखापन का भी ख्याल रखा लिया था।
इसके अलावा, मुझे यह भी लगा कि प्रकृति इसे किसी और दिशा में ले जाने को निर्देशित कर रही थी। मैंने पीपल या बरगद या सेमल बिल्कुल नहीं लगाये थे, लेकिन पक्षियों ने ऐसा किया था। अपने छोटे जीवनकाल में, यह उनके लिए किसी काम का नहीं था, लेकिन ये पेढ़ बढ़े होकर मधुमक्खियों और कई अन्य पक्षियों, और सांपों के लिए अच्छे निवास होते हैं। इसलिए, उन्होंने इसे कई पीढी बाद आने वाले दूसरे जन्तुओं के लिए भी कार्य करना शुरू कर दिया था।
मेरा छोटा सा प्रयास प्रकृति द्वारा बहुत अधिक बढ़ा दिया गया। वह भी किसी उच्च चेतना के प्रभाव में। मुझे अपनी अज्ञानता पर मुस्कुराने के लिए छोड़ दिया गया था। मुझे बस स्वयं का निर्णय करना था कि क्या भविष्य के राजस्व या नकली सुंदरता को लागू करने के लिये इस काम को बदला जाए?
मैंने कुछ नहीं बदला, क्योंकि दया ने मेरा मार्गदर्शन किया।
अल्बर्ट एसेनटीन ने एक बार कहा था, “खोज की राह पर बुद्धि का महत्व कम है। चेतना में एक छलांग आती है, इसे आप अंतर्ज्ञान या क्या कहेंगे, बस समाधान आपके पास आता है और आप नहीं जानते कि कैसे और क्यों हुआ । "
बस ऐसे ही दयालुता दुनिया में परिवर्तन का प्रचार कर सकती है। हमें बस आपनी दयालुता रखनी है। वह जिसे छुऐगी, उसकी चेतना को आह्वान करेगी।
दुनिया को चेतना की एक बड़ी छलांग से बदला जा सकता है जैसे कि विवेकानंद या आइंस्टीन ने अनुभव किया।
लेकिन दुनिया बड़े पैमाने पर भी बदल सकती है अगर अधिक से अधिक लोग सिर्फ अपने भीतर उस चेतना की उपस्थिति महसूस करें, इसे दया के साथ बढ़ने दें और सुंदरता के दर्शन करें।
9. भारत के दर्शन
इन विचारों के साथ, मैं वापस कर्मभूमि, भारत लौट आया। आम धारणा में, भारत प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक सौंदर्य की भूमि है। यहाॅ प्अरकृति की अनेक अनोखी छटाएॅ हैं जैसे मानसून, हिमनदियाॅ, इतने सारे मौसम आदि। प्रत्येक ऋतु अपने रंग, जीवन और उत्सव लाती है। मानव सभ्यता का इतिहास और विरासत है।
हालांकि, ऐसी सुंदरता का कोई मतलब नहीं है अगर यह स्वयं तक नहीं उतरती है और व्यक्तिगत रूप से प्राप्त होती है। वास्तव में, यह सुंदरता लोगों के आचरण द्वारा और निखारी दी जाती है, और एक ऐसा बंधन बनाती है जो विदेश में रहने वाले भारतीयों की पीढ़ियों के बाद भी टूटना मुश्किल है। मैंने इस सुंदरता को समझने की कोशिश की और यह एकमात्र बिन्दु पर आती है- व्यापक स्तर पर सात्विक दया या परोपकार का भाव।
मैंने 1980 के दशक में बिठूर के गाँवों (कानपुर में गंगा के किनारे) में बालक के रूप में अनुभव किया था। वहां हमारे पास एक छोटा अमरूद का खेत था।
उन दिनों खेत वाले राहगीरों को बुलाकर जिसे लोग बहुत से फल दे देते थे। उन्हें पैसे का कोई मोह नहीं था, बस अपना धर्म मानते थे कि कोई भी आगंतुक खाली हाथ न जाए। आगंतुक मानव, या बैल या पक्षी भी हो सकता था।
दान की यह भावना सर्वव्यापी थी और सात्विक थी। इसे देने वाले को इसे प्रचारित करने के लिए या संपादन करने के लिये किसी ऊर्जा की आवश्यकता नहीं थी।
पिछले दशक में मैंने बहुत यात्राएॅ कीं। सिर्फ यह पाया कि प्रकृति की बहुत हानि हो गयी है। संभवतः इसके साथ ही बाजार की ताकतों ने आम किसान के मन को प्रकृति से हटाकर एक डर पैदा किया, और यह मनोविज्ञान में गहराई तक पहुंच गया। अब तो सात्त्विक दान सीमित हो गया है।
हमारे ऋषियों ने कितनी समझदारी से हमें सुंदर बने रहने के लिए निर्देशित किया: "वसुधैव कुटुम्बकम", या यह दुनिया हमारा परिवार है। मनुष्यों के रूप में, इसने हमें अन्य सभी जीवन के ज्येष्ठ भ्राता के रूप में बहुत अधिक जिम्मेदारी दी।
जैसे-जैसे हमने इस दशन को खो दिया, धरती माता भी हमारे कर्मों का प्रतिबिंब बन गई। नदियों, जंगलों, गायों के शोषण को हमारे पतन से जोड़ना आसान है। हमने उनका उपयोग जारी रखा लेकिन वापस देना भूल गए।
हमारे ऋषियों ने हमें संसार की भी कुंजी दी: "सत्यम शिवम सुन्दरम"। इसके समान विचार उन विभिन्न संप्रदायों और धर्मों में भी मौजूद हैं जो यहां पैदा हुए थे।
हम भाग में भी सुंदरता देख सकते हैं - एक पक्षी का गायन, या एक पौधे का फूल, लेकिन असली सुंदरता सम्पूर्णता को देखने में है। यह विनम्रता और दया के माध्यम से ही संभव है।
हमारे पतन में, कोई यह देख सकता है कि हमने इस मार्ग को अनदेखा कर दिया है। मुझे लगता है कि यह ही शोषण का आधार है। कोई ऐतिहासिक उथल-पुथल को इसका कारण बता सकता है। लेकिन वह भूतकाल में था। और अब इसे मान्यता नहीं देने व पालन नहीं करने का कोई बहाना नहीं है।
मेरी पिछली कुछ वर्षों की यात्राएं यह देखने के लिए थीं कि क्या हम इसे अब पुनर्जीवित कर सकते हैं। मैंने देखा है कि पूरे सूखे हुए पेड़ भी वापस जीवन पा जाते हैं, बस अगर केवल लेशमात्र भी जीवन बचा रहता है और यदि परिस्थितियाँ उनकी मदद करती हैं।
तो इतना निराशाजनक मामला नहीं हो सकता - यह मेरा मानना है।
संयोग से एक बैठक में, श्री गोविंदाचार्य जी ने मुझे सुना और अपने विशाल अनुभव को साझा किया। वह सलाह देते हैं कि हमारे देश में पर्याप्त शक्ति और सज्जन शक्ति है। पहले इसका पता लगाएं, जहां यह दिखाई दे रही है, इसे बाहर लाएं।
यह प्रत्यक्ष मौजूद है - ऋषियों, नदियों, पेढ़ों, व उन आमजनों में जो अभी भी उपरोक्त दर्शन का अभ्यास करते हैं। यह अप्रत्यक्ष रूप में सभी लोगों में है बाद में, जो इसे बाहरी रूप से नहीं देख सकते हैं, लेकिन यह उनके भीतर रहती है और जब बुलायी जाएगी तब बाहर आ जाएगी।
मैंने इस शक्ति के संकेतों की खोज की है, और यह सर्वव्यापी दिखाई देती है। बाजार द्वारा इतने हमलों के बावजूद, लोग इस सज्जन शक्ति को संरक्षित करते हैं। कभी-कभी यह अकेली व असहाय दिखाई देती है लेकिन यह जीवित रहती है।
यह केवल एक सच्चे प्रयास से वापस जीवित हो जायेगी, वैसे ही जैसे कि एक सूखा पेड़ फिर हरा हो जाता है।
यही मेरा भारत दर्शन है। इसकी यात्रा पहले प्राकृतिक सौंदर्य के आकषण से शुरू होकर आध्यात्मिक दर्शन तक आ गई। और अब फिर से उस आध्यात्मिक तत्व की भौतिक अभिव्यक्ति की खोज में लगा हूॅ ताकि प्राकृतिक सौंदर्य भी बरकरार रहे।
विश्वास है कि यह एक बाहरी दुनिया को एक रास्ता भी दिखाएगा जिससे इसी ग्रह पर मानव जीवन सुंदर बने।
10. यहाँ से कहाँ जाना है?
यह भारत दर्शन एक स्थायी लक्ष्य या संसार की एक अवस्था नहीं है जिसे प्राप्त करने की आवश्यकता है, लेकिन एक दैनिक और व्यक्तिगत खोज जो हमेशा चलती रहेगी। इसीलिए इस भूमि को कर्मभूमि कहा जाता है।
जब भी यह दर्शन हमारे विचारों और कर्मों में कमजोर हुआ है, समाज परेशान हुआ है। जब भी यह सर्वव्यापी हुआ है, हमने मानव जाति की प्रगति देखी है। यह देखा जा सकता है कि अधिकांश महान वैज्ञानिक, दार्शनिक, कलाकार, इस दर्शन की नींव पर खड़े हैं, चाहे वे दुनिया में कहीं भी हों।
एक प्रश्न स्व के बारे में है। अगर मैं अपने वर्तमान कर्म के बजाय एक मोची होता, तो भी मैं सुंदरता देख पाता और देता। मैं तब भी उस पक्षी के लिए पानी का एक कटोरा छोड़ सकता था और अपने पुराने पड़ोसी को टहलने के लिए ले जा सकता था। मैं तब भी अपने खाली समय का उपयोग उस बगीचे की टूटी हुई बाड़ को या पड़ोसी के नल रिसाव को ठीक करने के लिए कर सकता था।
एक दिन मैंने देखा कि बच्चे भी पुराने पड़ोसी के साथ सैर के लिए निकल रहे हैं। और वह पानी पीने वाला पक्षी भी कहीं से लायी एक टहनी छोड़कर गया है हालाॅकि अभी मैं उसका उद्देश्य नहीं देख सकता था। चेतना अपना काम कर रही है, और आज के युग में भी इसका काम अच्छे से होता है!
जब मैं स्वयं से आगे बढ़ता हूं, तो मैं अपने नियत कर्म करता हूं। यहां, मैं अरण्यानी की परियोजनाओं पर काम करता हूं, जिनके बारे में मैंने अलग से लिखा है। लेकिन जैसे एक समर्पित मोची अपनी सुंदरता को जूता देता है, और बाहरी दुनिया को इस रिश्ते को प्रभावित नहीं करने देता है, वैसे ही मेरा भी अपने कार्य से रिश्ता है। यह इस दर्शन की नींव पर खड़ा होगा। अगर मैं लड़खड़ाता हूं या गलती करता हूं, तो यह मेरा पतन होगा; मेरा पतन खुद को, दूसरों को और भारत को दुख जरूर पहुंचाएगा, लेकिन यह दर्शन कभी भी नहीं झुकेगा।
क्या इस दर्शन से व्यवहार परिवर्तन द्वारा वर्तमान आर्थिक प्रणालियां और राजनीतिक व्यवस्थाएं बदल सकती हैं?
जैसा कि हम देखते हैं, यह भारत दर्शन पहले से ही व्यापक है और काम पर है, बस यह आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के दायरे से बाहर है।
अलग तरह से देखें तो ये आर्थिक व राजनैतिक प्रणाली केवल एक अभिव्यक्ति है कि हम उन्हें क्या करने की अनुमति देते हैं। इसलिए परिवर्तन मनुष्य के भीतर है। जैसा अधिकांश इंसान चाहेंगे वैसा ही यह प्रणाली बदलेगी।
वर्तमान प्रणालियों की बुराई को बिना पूर्वाग्रह के सोचें तो, इन प्रणालियों को इस आधार पर बनाया गया है कि यह एक निश्चित तरीके से मनुष्यों को संगठित करती है, इस दुनिया की प्रगति और गहरी शोध को सही दिशा देंगी व हमें बेहतर जीवन और सुरक्षा प्रदान करेंगी।
लेकिन अब वे इस धारणा के साथ काम करने लगी हैं कि हम एक प्रजाति के रूप में दूसरे जीवन व संसार से अलग हैं, इसलिए हम अलग से योजना बना सकते हैं। इसी धारणा के विस्तार के रूप में, वे मानव बंधनों को भी तोड़ने के लिए आगे बढी हैं।
और अब यह स्थिति है कि इस मॉडल की भौतिक सीमाएं - शिक्षा, उपचार, उपभोग, प्रकृति के शोषण, आदि के रूप में प्रकट होती हैं।
आजकल बुद्धिजीवियों द्वारा इन समस्याओं पर चिंतन करने का आह्वान, मनुष्यों की चेतना के अनुसार व्यवस्थाओं को व्यवस्थित करने के बजाय एक नए पसंदीदा तरीके से मनुष्यों को संगठित करने की एक बाहरी जरूरत से उपजा दिखाई दे रहा है।
इसलिए, नये मॉडल के विचारों के साथ संघर्ष करने के बजाय, खुद को बदलना सबसे अच्छा है। इस दर्शन परिवर्तन के मार्गदर्शक बनें। मेरा मानना है कि शासन और आर्थिक मॉडल स्वयं और तेजी से बदल जायेंगे।
याद रखें कि बस कुछ ही समय पहले, आधुनिक तकनीक आने से पहले, कराधान प्रणाली न्यूनतम नौकरशाही या बिचौलियों के साथ काम करती थी। कल्याणकारी कार्यक्रम, जल प्रणाली, न्यायिक प्रणाली भी स्थानीय थी व सामूहिक विवेक पर काम होता था। यह बहुत विविधतापूर्ण था।
पर इस प्रणाली को संसाधनों का अकुशल उपयोग माना गया। यह और बात है कि संसाधनों का उत्थान और निर्वाह तब विचार के दायरे में नहीं था।
हथियारों और उद्योग में तकनीकी छलांग ने जनमानस को विविध होने की अक्षमता को स्वीकार करने के लिए मना लिया। फिर यह व्यवस्था चंद हाथों में संसाधनों के एकत्रीकरण की ओर ले गयी।
कई प्रसिद्ध राजनीतिक और सामाजिक सुधारकों ने हमारे देश में इस पर सवाल उठाने की कोशिश की। उन्होंने परिकल्पना की कि इस प्रणाली को सबसे कमजोर व्यक्ति की जरूरतों के साथ जोड़ा जाए, और सुझाव दिया कि ऐसा करने में यह गैर-शोषक बन जाएगी। उनमें से अधिकांश व्यक्ति उच्च पदों पर पहुंच गए, लेकिन उनके सच्चे प्रयास के बावजूद हम ने केवल समाज में गिरावट देखी।
दूसरी ओर, स्वामी विवेकानंद जैसे विचारक मानव के मन को संबोधित करते हैं और इसे सुधारने की कोशिश करते हैं। संभवतः विपरीत दिशा के साथ बहुत बल था, और प्रकृति का फायदा उठाने के लिए ऐसे विचार जो मानव पर जिम्मा डालते थे, केवल प्रशंसा और पुस्तक अलमारियों के लिए छोड़ दिए गए थे।
लेकिन हम फिर से बदलाव की कगार पर हैं। सीमित संसाधनों का शोषण, चाहे वह कुशलतापूवक हो या नहीं, अब संभव नहीं है। मानव फिर से विविधता के प्रति जाग रहे हैं और ग्रह की चिंता में हैं।
बाजार कई सपने दिखाने और नये नेताओं के मायम से इस तड़प से बाहर निकालने की कोशिश करेगा, लेकिन यह रास्ता केवल आत्म - सौंदर्य -दयाभाव- चेतना से होकर ही जाता है।
ऐसा अवश्य ही होगा। हम केवल योगदान कर अपने जीवन काल के दौरान ही देखने की चेष्ठा कर सकते हैं।
जीवन की यह लंबी रात एक अच्छी तरह से बिताया गया समय रहा है - चौदह साल या शायद बीस से तीस साल।
लेकिन अब जीवन का सूर्य ढलने तक दिन को अर्थपूर्ण बनाने की जरूरत है।