उत्तिष्ठ भारत!
"उत्तिष्ठ भारत ", उन्होंने कहा, और उस जादुई क्षण में मुझे लगा कि नदी, पेड़, और आकाश ...सब कह रहे थे कि "उत्तिष्ठ भारत "।' मैं उठ गया, कभी पीछे मुड़कर नहीं देखने के लिये और फिर कभी संदेह नहीं हुआ।
10 साल पहले, जब मैंने अपनी पुस्तक " द डायरी ऑफ ए स्नेक चार्मर " में उक्त पंक्तियों को लिखा था, तो यह खुद को उठाने के बारे में था।
एक दशक यह समझने में बिताया है कि भारत क्या है, और हम इसे कैसे फिर से सुंदर और खुशहाल जगह बना सकते हैं - एक ऐसी जगह जहां लोग जीवन की सुंदरता का अनुभव करते हैं और इस अनुभव के लिए इतने आभारी हैं कि वे उसे ज्यादा वापस कर देना चाहते हैं; उनकी आकांक्षाएं मानवता और राष्ट्र के लिए पहले हैं, और फिर खुद के लिए।
इसके विपरीत, हम अपने देश के भीतर इतना गरीब व निम्न स्तर का जीवनयापन देखते हैं, यहाॅ रोटी के लिये देशव्यापी अल्पकालिक प्रवास देखते हैं जो दुनिया में किसी भी अन्य मानव प्रवाह से बहुत अधिक है। इस प्रवास में से अधिकांश उच्च स्तरीय अवसरों के लिये नहीं है, बल्कि निम्न स्तर की आजीविका की खोज है। जानवरों की स्थिति और उनके प्रति हमारा रवैया दयनीय है। यही हाल पेड़ों और जंगलों का है।
एक गरीब आदमी की झोपड़ी में उद्यम की भावना टूट गई है। पचास साल पहले जुगाड़ का समय आया था, और इसपर हम घमंड करते थे, लेकिन यह सम्पूर्ण निर्भरता का अग्रदूत था।
आज एक किसान चाहता है कि उसके बच्चे कहीं नौकरी पाएं - किसानी या किसी भी व्यवसाय के जोखिम बहुत अधिक हैं। जो लोग सरकारी नौकरी पा सकते हैं उनके लिए जीवन सहज होता है।
एक राष्ट्र का स्तर एक गरीब की झोपड़ी में उद्यम की भावना से अधिक नहीं हो सकता है। राष्ट्र की मूल्य प्रणालियां और स्थिरता, सबसे गरीब से ही उत्पन्न होती हैं।
क्या हम आज की हालत से उस भारत में जा सकते हैं जिसका हम सपना देखते हैं? यह एक क्रमिक कदम नहीं है जैसा कि वार्षिक जीडीपी वृद्धि द्वारा वादा किया जाता है लेकिन एक बड़े पैमाने पर परिवर्तन है। मेरा मानना है कि यह परिवर्तन कुछ वर्षों में बहुत तेजी से हो सकता है यदि हम कमर कस लें।
कोविद -19 हमें कर्मशील करने के लिए एक छोटा सा अवसर है। यह कई आंखें खोलेगा - परिसंपत्तियां टूट जाएंगी, हवा के महल गायब हो जाएंगे।
लेकिन यह एक नए दिन की शुरुआत भी है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में जान लाने के अब दो ही अलग रास्ते हैं:
एक, वह रास्ता जिसमें अपनी उम्दा संपत्ति व भविष्य की नीति, बाहरी ताकतों को सौंप दी जाती है। यह सिलसिला अंग्रेजों और रियासतों के जमाने से चल रहा है।
वर्तमान समय में इसे सम्मानजनक रूप से deregulation या opening up भी कह दिया जाता है लेकिन यह सारा opening up आम आदमी से दूर ही रहता है - कुछ टुकढे जरूर मिल जाते हैं। अर्थशास्त्री, नौकरशाही व नेतागण इस रास्ते पर ज्यादा खुश रहते हैं।
जाहिर सी बात है, कटोरा लेकर जाते हैं और जनता का हक बेच आते हैं। बहुत सारों को तो कुछ और आता ही नहीं है।
फिर उस कटोरे का बंदरबाॅट हो जाता है। कैसे होता है यह एक सरल पुस्तक 'व्यवस्था परिवर्तन की राह' में श्री गोविंदाचार्य जी ने समझाया है।
दूसरी तरफ जनता की बंदगी बढी असुविधाजनक चीज है।
दूसरा वह रास्ता है जिसमें जनता को बेजा कानूनों व व्यवस्था के नागपाश के जाल से निकालकर उन्हे सक्षम् होने दिया जाये।
गौर करें कि आज मुसीबत आयी तो कई राज्यों ने Apmc act ही शिथिल कर दिया। D&C Act को दरकिनार कर कुटीर भी सेनीटाईजर बनाने लगे।
ऐसा भी क्या कि सिर्फ मतलब पढने पर ही छोटे किसान या कुटीर उद्योग की बेढियाॅ ढीली होती हैं? तब क्यों विश्वास कर लेते हो?
जब मुसीबत चली जायेगी तो फिर सारे act लगा देंगे।
जाहिर सी बात है कि नागपाश से किसको फायदा है। एक - दो कानूनों और सिर्फ 30 साल की बात नहीं है। Rera act लाया गया कुछ मंशा बता कर और होते होते एक और चुंगी नाका खुल गया। शिक्षा , स्वास्थ्य , पंचायत राज की बात ही नहीं करते - बहुत बढा मुद्दा है।
सब जगह एक ही मंशा कि कैसे "अनुकूल" नियमो में बांधा जाये। जहाॅ नियमों का सहारा न हो पाये तो प्रक्रिया उलझा दो।
Lord of the rings किताब में एक खण्ड है "Scouring of the shire" । बस अपने भारत के लिये ही लिखा गया है।
अब भारत को भारत वापस मिले, यही दूसरा तरीका है। और यह कोई अनोखी चीज नहीं है। जर्मनी , जापान जैसे ध्वस्त हो चुके देश फिर वापस अपने ही दम पर उठे।
आना तो दूसरे पर ही पढेगा। हम एक करोना से सीख जायें तो बेहतर होगा।
मैं एक दृढ़ विश्वासी हूं और 'भारत दर्शन' के लेख में व्यक्त किया है कि किस तरह के बड़े पैमाने पर परिवर्तन स्वयं के माध्यम से होता है।
इसी के साथ लेकिन पहले नहीं, अर्थव्यवस्था और प्रणालियों की भौतिक दुनिया भी उस दिशा में आवश्यक कदम उठा सकती है।
अर्थव्यवस्था:
जैसा भारत था, वेसै ही आज के समय में व्यापक उद्यमिता के लिए फिर हो सकती है, और मुझे लगता है कि हम इस महान अवसर को क्रियांवन करने की अंतिम समय सीमा में हैं। ज्यादा समय बीतने पर यह अवसर की ताकत फीकी पड़ जाएगी क्योंकि हम अपनी प्रकृति, कौशल, व्यंजनों, शिल्प कौशल, स्थानीय संसाधन ज्ञान जैसे विशाल मानव ज्ञान को खोते जा रहे हैं।
हाल ही में, मैंने एक वरिष्ठ राजनेता और एक नौकरशाह का एक साक्षात्कार देखा कि वे कुटीर ग्रामीण उद्योगों को ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म से कैसे जोड़ेंगे। यह कोरोना वायरस के कारण हुई आर्थिक कमजोरी के मद्देनजर था।
यह बयानबाजी अर्थव्यवस्था के दो छोरों के बीच की खाई को उजागर करती है- एक गरीब की झोपड़ी और एक उच्च कार्यालय।
वास्तविकता यह है कि गाँव के बाद गाँव में, शायद ही कोई घरेलू या लघु स्तर की इकाई है जिसका स्वामित्व वहीं का हो और जो ऑनलाइन बिकने लायक कुछ भी पैदा करता है।
अगर हम जीडीपी के दृष्टिकोण से आंकड़ों को देखें, तो शायद प्रत्येक इकाई / गांव का सकारात्मक योगदान है। लेकिन एक नेट वैल्यू से देखा जाये तो यह सिर्फ निराशाजनक नहीं है, बल्कि नकारात्मक भी है। इसने पलायन, अमीर को संपत्ति के हस्तांतरण, और प्राकृतिक संसाधनों के शोषण को जन्म दिया है। कोई और सच्चाई नहीं है।
कोला नामक एक मुहावरेदार फार्मूले की रक्षा के लिए कानून और मशीनरी सब कुछ मुस्तैद है, और इसके लिए एक चौंकाने वाला बीमा भी है। यहां तक कि नदियों की भी इसके लिये बलि जा सकती है।
दूसरी ओर, बेल, महुआ, इत्यादि जैसे बहुत प्राचीन व सुलभ व स्वस्थ पेय को किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं मिला है। पूरे प्रतिभाशाली शासन तंत्र को पता नहीं है कि उन्हें मुख्यधारा में कैसे लाया जाए। इसके बजाय, ऐसे उत्पादों को खत्म करने के लिए बोझिल प्रक्रिया और लाइसेंस कानून बनाए गए हैं।
कारण स्पष्ट हैं - सर्वव्यापी संसाधन पर नियंत्रण करना असंभव है। एंट्री बैरियर व नियंत्रण ही व्यवसाय के मंत्र हैं और सरकारें इसमें मदद कर सकती हैं।
ऐसे परिदृश्य में, हम उस झोपढी को अर्थव्यवस्था में ज्यादा हिस्सेदारी तक कैसे ले जायें?
मैं सोचने के लिए एक सरल SWOT विश्लेषण का उपयोग करूंगा:
झोपड़ी उद्यम की कमजोरियां कई हैं:
- एक गरीब परिवार के कौशल, संसाधन, अवसर एक कॉर्पोरेट योजनाकार से बहुत कम हैं। दशकों से इनके मन में गहरे प्रभाव पैदा किए गए हैं तथा इन्होंने किसी भी उद्यम के बारे में सोचना बंद कर दिया है।
- छोटे पैमाने पर प्रति यूनिट लागत ज्यादा आती है।
- अप्रासंगिक शिक्षा के साथ साथ कौशल के क्षरण का मतलब है कि छोटे उद्यम का जोखिम बहुत अधिक है; और लगभग उत्तराधिकार का नियोजन नहीं है। इसलिए विफलता के बढ़े हुए जोखिम से पूंजी की लागत में वृद्धि।
- खपत करने वाले बाजारों की समझ नहीं होना। पुराने समय के विपरीत, उपभोक्ता और झोपड़ी निर्माता के बीच रिश्ता टूट गया है।
फिर भी, हमें निराशा की जरूरत नहीं है। कुटीर उद्यमों में कई नैसर्गिक ताकतें हैं, उनमें से कुछ आधुनिक समय के उपहार हैं:
- प्रत्येक औद्योगिक उत्पाद के समतुल्य खाद्य पदार्थ, कपड़े, रंग, शिल्प और व्यक्तिगत उपभोग के सामान, कुटीर उद्यमों में प्राकृतिक ढंग से बनाये जा सकते हैं। गलत नीतियों के कारण औद्योगिक उत्पादों को प्रकृति और मानव स्वास्थ्य के क्षरण के लिए कभी चार्ज नहीं किया गया। इसलिये अब ये बेहतर प्राकृतिक उत्पाद इतने मूल्यवान और आवश्यक हो गए हैं कि दूरस्थ खपत की लागत अब समस्या नहीं है।
- उपरोक्त उत्पादों का उत्पादन करने का ज्ञान वरिष्ठ आबादी में सर्वव्यापी है।
- कई मामलों में प्रौद्योगिकी एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गई है, जहां छोटे पैमाने पर वितरित ऑपरेशनों की लागत एक बड़े केंद्रिय उत्पादन के समतुल्य है, जैसे संचार की कीमत आदि।
- फिर ऐसी प्रौद्योगिकियां हैं जो अभी भी छोटे पैमाने पर मामूली महंगी हैं, लेकिन ये अब आसानी से लघु उद्योग को उपलब्ध हैं। जैसे लघु सौर कोल्ड स्टोरेज, सटीक उपकरण आदि। ऐसी प्रौद्योगिकियों की लागत को आसानी से लघु उत्पादन मे शामिल किया जा सकता है।
- वित्तीय बाजार अब बहुत तरल हैं यानी वे पूंजीगत लागतों का आकलन और आपूर्ति बहुत तेजी से करते हैं।
इस युग में जो अवसर क्षितिज पर हैं:
- प्रकृति के दोहन की सामाजिक और स्वास्थ्य लागत अब स्पष्ट है। भले ही प्राकृतिक खपत का आधार वर्तमान में बहुत कम है, लेकिन आने वाले दशकों में, भले ही कानून इसका साथ नहीं दें, यह सबसे तेजी से बढ़ता उपभोग खंड है। बाजार में विकास होते ही छोटे पैमाने पर उत्पादन जल्दी से बढाना आसान है।
- उपरोक्त की मदद से, छोटे पैमाने पर कई उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों का उत्पादन किया जा सकता है। यह सोचना कि कुटीर उद्योग सिर्फ निम्न स्तर के या सस्ते उत्पाद ही बनायें, उनकी प्रगति के लिये हानिकारक हैं।
- "औद्योगिक स्केल इकोनॉमिक्स" का आर्थिक लाभ अब संसाधनों के हथियाने तक ही सीमित हो गया है। इसके साथ ही सामाजिक और प्राकृतिक शोषण के लिए कोई लागत या कर नहीं है जो अनुचित है। इस तरह की सभी उत्पाद को आसानी से वितरित कर स्थानीय उत्पाद व खपत में वापस ले जाया जा सकता है।
- औद्योगिक खेती का आर्थिक लाभ भी लुप्त हो गया है। उधर व्यर्थ और प्रदूषित जल की अनुमानित लागत ही एक बहुत बढी वार्षिक अपदा है जो निरंतर स्वास्थ्य लागत के रूप में पहले से ही क्षितिज पर है। इसलिए, हम जल्दी से भारत को प्राकृतिक खेती और दवा की टोकरी बनने की स्थिति में हैं। लेकिन यह गांवों में ही सहायक इकाइयों की स्थापना के साथ ही संभव हो सकता है, क्योंकि प्राकृतिक खेत औद्योगिक खेतों की तुलना में अलग तरह से काम करते हैं।
- नियत नीतियों के साथ, घरेलू खपत व उत्पाद का बहुत-सा हिस्से का विकेन्द्रीकरण व प्राकृतिकरण हो सकता है। यह ग्राम इकाइयों, बेहतर पर्यावरण और कम सामाजिक तनाव के साथ साथ आर्थिक समानता को भी बढावा देगा ।
इस पथ पर चलने में कई बाधाएॅ भी हैं:
- परिवर्तन की कोई भी शुरुआत स्थापित निहित हितों द्वारा बाधित होने का खतरा है।
- जबकि प्रौद्योगिकी, वित्तीय और कोर बुनियादी ढांचे और खपत पैटर्न इस पथ पर कदम रखने के लिए तैयार हैं, कानूनी बाधाएं बनी हुई हैं। कानून या तो कुटीर इकाइयों के लिये बहुत दमनकारी हैं, या प्रक्रिया में बहुत बोझिल हो गए हैं। उदाहरण के लिए, एक साधारण साबुन लाइसेंस लेने के लिए, रसायन विज्ञान के साथ स्नातक की आवश्यकता होती है। हर उत्पाद को ऐसै नियम कानून से घेरा हुआ है जिनको पालन कर पाना आज के ग्रामीण परिवेश में संभव नहीं हैं। इस तरह की पुरातन और बोझिल आवश्यकताओं के साथ-साथ ड्रैकोनियन दंड और रिपोर्टिंग प्रक्रियाओं को पूरी तरह से दूर किया जाना है। वित्तीय रिपोर्टिंग में भी इसी तरह की सादगी की आवश्यकता है।
- सरकारों को फिर से कल्पना करनी होगी कि करों को कैसे व्यवस्थित किया जाए, क्योंकि इस तरह के दिशा-निर्देश से स्थानीय उत्पादन व खपत को बढ़ावा मिलेगा। इससे जीडीपी और संबंधित लेनदेन कम हो सकते हैं। साथ ही सरकार पर भी कल्याण खर्च के लिए बहुत कम बोझ पढेगा।
-पुराने समय में जब धन अधिक वितरित था, तब पंचायत या इसी तरह की इकाइयां ही कर एकत्रित करती थीं और स्थानीय स्तर के योजना निर्माता थे। वितरित कर प्रणाली भी एक नई अवधारणा नहीं है, हालांकि डरपोक राजनेता और नौकरशाह इसके विकेन्द्रीकरण से बचते हैं क्योंकि यह बेईमान उपयोग को भी सीमित करता है।
बाजार, अर्थव्यवस्था और तकनीकी की अपनी गति है। वे आगे बढ़ गए हैं और अंतिम व्यक्ति तक उपभोग मूल्य का हिस्सा लाने का अवसर पेश करते हैं। प्रकृति तो किसी की बाध्य नहीं - उसकी इच्छा ही सर्वोपरि होगी।
इसलिये अब विधायिका को अपना सही कर्म करना है। उनका मंत्र सबको सक्षम करना है न कि उलझाना या नियंत्रित करना।
हम पारंपरिक तरीकों पर भरोसा करें, उनका आधुनिकीकरण करें, उनका परीक्षण करें, उन्हें मान्यता दें, लेकिन उन्हें अवरुद्ध न करें। यह अनिवार्य रूप से भारत को प्राकृतिक और वितरित धन के साथ सुढृग कर देगा।
शिक्षा:
एक अलग आर्थिक प्रतिमान के लिए एक अलग शिक्षा पद्धति भी आवश्यक है। लगभग उन्नत देशों की तरह, या हमारे पुराने समय की तरह, शिक्षा का मूल ध्यान प्रासंगिक कौशल पर होना चाहिये। कौशल प्राथमिक भी हो सकते हैं जैसे लेखन आदि और उच्चतर भी जैसे विश्लेषण। परंतु यह सामूहिक दिशा और सामूहिक परीक्षणों पर नहीं होगा।
इसका मतलब यह है कि घर प्री-प्राइमरी स्कूल होगा और उसको सामुदायिक कार्यक्रमों द्वारा मदद मिलेगी जहाँ सीखने का काम चल रहा है। इसका ध्यान आंतरिक विकास, काम करने और सीखने की आदतों पर होगा।
तकनीक पहले से ही मौजूद है जहां गहरे प्रायोगिक पाठ्यक्रमों के अलावा, अब किसी भी तरह से प्रवेश को सीमित करने की आवश्यकता नहीं है, चाहे वह आरक्षण हो या प्रवेश। लोगों को प्रवेश दें, लेकिन केवल योग्य और समर्पित विद्वान ही अगले चरण तक जायें। पहले से ही सीए जैसे कुछ पाठ्यक्रम उस पैटर्न का पालन करते हैं।
इसलिए किसी भी अवसर या आकांक्षाओं से इनकार नहीं किया जाये, लेकिन व्यक्ति को खुद की क्षमता और रुचि के अनुसार सबसे अच्छा पाठ्यक्रम तय करने दें। हमें आधारभूत संरचना बनाने की आवश्यकता होगी ताकि अवसर सर्वव्यापी हो।
स्वास्थ्य:
गांधीजी ने प्रत्येक घर को एक प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली के रूप में सोचा था, अब इसे साकार किया जाना है। वर्तमान केंद्रीकृत स्वास्थ्य सेवा प्रणाली न केवल बहुत महंगी है, बल्कि बहुत शोषक भी है।
यह तर्क दिया जाता है कि आधुनिक चिकित्सा अनुसंधान को इस समग्र स्वास्थ्य प्रणाली से ही पोषित करना पढता है और उसे बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती है। लेकिन तथ्य यह है कि वास्तविक प्रयोगशालाओं के सभी अनुसंधान बजट जोढने पर भी यह स्वास्थ्य के नाम पर चल रही मुनाफाखोरी के सामने क्षीण ही है।
इस परजीवी उद्योग से सरकारों और जनता को मुक्त करने के एवज में एक छोटे से शुल्क के द्वारा वास्तविक अनुसंधान को आसानी से वित्त पोषित किया जा सकता है।
इसके लिए रास्ता प्रासंगिक है कि घरों में प्रासंगिक शिक्षा, प्राकृतिक और प्राथमिक इलाज और जीवन शैली का मजबूत प्रशिषण और प्राकृतिक विविधता वापस मिले। एक तरह से, स्वास्थ्य का मुद्दा एक वितरित अर्थव्यवस्था और शिक्षा के अन्य अवयवों के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है।
यह निश्चित रूप से प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा बोझ को कम करेगा और यहां तक कि उन मामलों को भी कम करेगा जिन्हें उन्नत शल्य चिकित्सा या चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता होती है।
दूसरी तरफ चिकित्सालयों में भीढ़ और इसलिए मांग-आपूर्ति का अंतर अधिक होने के कारण, गरीब और मध्यम वर्ग को कुचला जा रहा है।
शहरी जीवन:
मेरे विचार में, शहरी, ग्रामीण और वन जीवन का अलगाव, एक भयानक त्रुटि थी। यदि हम प्रकृति के सभी अन्य जीवों को देखें तो लगेगा कि मानव की विशाल शहरी आबादी को प्रकृति वंचित जीवन जीने को मजबूर नहीं होना चाहिये।
उधर ग्रामीण क्षेत्रों को औद्योगिक खाद्य उत्पादन क्षेत्र नहीं होना चाहिए, वह भी अर्थव्यवस्था में सबसे कम मूल्य पाने वाले उत्पाद । और जंगलों को अलग थलग करके मानव को उनकी समझ से दूर नहीं करना चाहिये था।
मैं एक दशक से भी अधिक समय तक एक घने जंगल में रहा हूँ; इसलिए मैं स्वयं के अनुभव से बता सकता हूं। यहाॅ हमेशा ही एक शहरी जीवन की तरह भीड़, मॉल और आवागमन है, बस उनको देखने समझने की दृष्टि चाहिये।
आज भी अधिकांश छोटे शहर जो देश भर में व्यापक हैं, वे अभी भी अच्छे शहरी मॉडल हैं।
एकीकृत शहरी-ग्रामीण-वन मॉडल तो उन्हीं आर्थिक, शिक्षा और स्वास्थ्य मॉडल के साथ चलेगा जो इस जीवन शैली के साथ मेल खाते हैं।
विकास का अर्थ:
यह वह जगह है जहां हमें मूल्यों, नैतिकता और भारत दर्शन (फिलसफी) पर काम करना होगा। सदियों से, विकास का मतलब हमारे लिए मानवीय प्रगति है। सबसे पहले, इसका मतलब है कि हम भारत के रूप में जो कुछ भी मिला है, उसका संरक्षण और सुधार करते हैं। इसके बाद इसका मतलब है कि विज्ञान और चिकित्सा, कला आदि में प्रगति।
इसका मतलब यह नहीं है कि जीवन और समाज में उपयोग की जाने वाली हानिकारक वस्तुओं का असीमित भोग हो। दोषपूर्ण मनुष्य आते और जाते रहेंगे।
परंतु एक गहरी सभ्यता उनके लालच और भय को और परजीवी जीवन जीने की प्रवृत्ति की पहचान करने की क्षमता रखती है, और उन्हें मानव प्रगति का प्रतीक नहीं बनने देती है।
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उपरोक्त पांच पहलू संक्षेप में परिभाषित हैं तथा परिवर्तन की महत्वपूर्ण दिशाओं को विचाराधीन करते हैं। इन पर और चिन्तन से भारत दर्शन को सर्वव्यापी करने में मदद मिलेगी, और साथ में हमारे सपनों के भारत की स्थापना में मदद मिलेगी।
ऐसे विश्वास के साथ आपको इसे समर्पित करता हूॅ।
"उत्तिष्ठ भारत ", उन्होंने कहा, और उस जादुई क्षण में मुझे लगा कि नदी, पेड़, और आकाश ...सब कह रहे थे कि "उत्तिष्ठ भारत "।' मैं उठ गया, कभी पीछे मुड़कर नहीं देखने के लिये और फिर कभी संदेह नहीं हुआ।
10 साल पहले, जब मैंने अपनी पुस्तक " द डायरी ऑफ ए स्नेक चार्मर " में उक्त पंक्तियों को लिखा था, तो यह खुद को उठाने के बारे में था।
एक दशक यह समझने में बिताया है कि भारत क्या है, और हम इसे कैसे फिर से सुंदर और खुशहाल जगह बना सकते हैं - एक ऐसी जगह जहां लोग जीवन की सुंदरता का अनुभव करते हैं और इस अनुभव के लिए इतने आभारी हैं कि वे उसे ज्यादा वापस कर देना चाहते हैं; उनकी आकांक्षाएं मानवता और राष्ट्र के लिए पहले हैं, और फिर खुद के लिए।
इसके विपरीत, हम अपने देश के भीतर इतना गरीब व निम्न स्तर का जीवनयापन देखते हैं, यहाॅ रोटी के लिये देशव्यापी अल्पकालिक प्रवास देखते हैं जो दुनिया में किसी भी अन्य मानव प्रवाह से बहुत अधिक है। इस प्रवास में से अधिकांश उच्च स्तरीय अवसरों के लिये नहीं है, बल्कि निम्न स्तर की आजीविका की खोज है। जानवरों की स्थिति और उनके प्रति हमारा रवैया दयनीय है। यही हाल पेड़ों और जंगलों का है।
एक गरीब आदमी की झोपड़ी में उद्यम की भावना टूट गई है। पचास साल पहले जुगाड़ का समय आया था, और इसपर हम घमंड करते थे, लेकिन यह सम्पूर्ण निर्भरता का अग्रदूत था।
आज एक किसान चाहता है कि उसके बच्चे कहीं नौकरी पाएं - किसानी या किसी भी व्यवसाय के जोखिम बहुत अधिक हैं। जो लोग सरकारी नौकरी पा सकते हैं उनके लिए जीवन सहज होता है।
एक राष्ट्र का स्तर एक गरीब की झोपड़ी में उद्यम की भावना से अधिक नहीं हो सकता है। राष्ट्र की मूल्य प्रणालियां और स्थिरता, सबसे गरीब से ही उत्पन्न होती हैं।
क्या हम आज की हालत से उस भारत में जा सकते हैं जिसका हम सपना देखते हैं? यह एक क्रमिक कदम नहीं है जैसा कि वार्षिक जीडीपी वृद्धि द्वारा वादा किया जाता है लेकिन एक बड़े पैमाने पर परिवर्तन है। मेरा मानना है कि यह परिवर्तन कुछ वर्षों में बहुत तेजी से हो सकता है यदि हम कमर कस लें।
कोविद -19 हमें कर्मशील करने के लिए एक छोटा सा अवसर है। यह कई आंखें खोलेगा - परिसंपत्तियां टूट जाएंगी, हवा के महल गायब हो जाएंगे।
लेकिन यह एक नए दिन की शुरुआत भी है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में जान लाने के अब दो ही अलग रास्ते हैं:
एक, वह रास्ता जिसमें अपनी उम्दा संपत्ति व भविष्य की नीति, बाहरी ताकतों को सौंप दी जाती है। यह सिलसिला अंग्रेजों और रियासतों के जमाने से चल रहा है।
वर्तमान समय में इसे सम्मानजनक रूप से deregulation या opening up भी कह दिया जाता है लेकिन यह सारा opening up आम आदमी से दूर ही रहता है - कुछ टुकढे जरूर मिल जाते हैं। अर्थशास्त्री, नौकरशाही व नेतागण इस रास्ते पर ज्यादा खुश रहते हैं।
जाहिर सी बात है, कटोरा लेकर जाते हैं और जनता का हक बेच आते हैं। बहुत सारों को तो कुछ और आता ही नहीं है।
फिर उस कटोरे का बंदरबाॅट हो जाता है। कैसे होता है यह एक सरल पुस्तक 'व्यवस्था परिवर्तन की राह' में श्री गोविंदाचार्य जी ने समझाया है।
दूसरी तरफ जनता की बंदगी बढी असुविधाजनक चीज है।
दूसरा वह रास्ता है जिसमें जनता को बेजा कानूनों व व्यवस्था के नागपाश के जाल से निकालकर उन्हे सक्षम् होने दिया जाये।
गौर करें कि आज मुसीबत आयी तो कई राज्यों ने Apmc act ही शिथिल कर दिया। D&C Act को दरकिनार कर कुटीर भी सेनीटाईजर बनाने लगे।
ऐसा भी क्या कि सिर्फ मतलब पढने पर ही छोटे किसान या कुटीर उद्योग की बेढियाॅ ढीली होती हैं? तब क्यों विश्वास कर लेते हो?
जब मुसीबत चली जायेगी तो फिर सारे act लगा देंगे।
जाहिर सी बात है कि नागपाश से किसको फायदा है। एक - दो कानूनों और सिर्फ 30 साल की बात नहीं है। Rera act लाया गया कुछ मंशा बता कर और होते होते एक और चुंगी नाका खुल गया। शिक्षा , स्वास्थ्य , पंचायत राज की बात ही नहीं करते - बहुत बढा मुद्दा है।
सब जगह एक ही मंशा कि कैसे "अनुकूल" नियमो में बांधा जाये। जहाॅ नियमों का सहारा न हो पाये तो प्रक्रिया उलझा दो।
Lord of the rings किताब में एक खण्ड है "Scouring of the shire" । बस अपने भारत के लिये ही लिखा गया है।
अब भारत को भारत वापस मिले, यही दूसरा तरीका है। और यह कोई अनोखी चीज नहीं है। जर्मनी , जापान जैसे ध्वस्त हो चुके देश फिर वापस अपने ही दम पर उठे।
आना तो दूसरे पर ही पढेगा। हम एक करोना से सीख जायें तो बेहतर होगा।
मैं एक दृढ़ विश्वासी हूं और 'भारत दर्शन' के लेख में व्यक्त किया है कि किस तरह के बड़े पैमाने पर परिवर्तन स्वयं के माध्यम से होता है।
इसी के साथ लेकिन पहले नहीं, अर्थव्यवस्था और प्रणालियों की भौतिक दुनिया भी उस दिशा में आवश्यक कदम उठा सकती है।
अर्थव्यवस्था:
जैसा भारत था, वेसै ही आज के समय में व्यापक उद्यमिता के लिए फिर हो सकती है, और मुझे लगता है कि हम इस महान अवसर को क्रियांवन करने की अंतिम समय सीमा में हैं। ज्यादा समय बीतने पर यह अवसर की ताकत फीकी पड़ जाएगी क्योंकि हम अपनी प्रकृति, कौशल, व्यंजनों, शिल्प कौशल, स्थानीय संसाधन ज्ञान जैसे विशाल मानव ज्ञान को खोते जा रहे हैं।
हाल ही में, मैंने एक वरिष्ठ राजनेता और एक नौकरशाह का एक साक्षात्कार देखा कि वे कुटीर ग्रामीण उद्योगों को ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म से कैसे जोड़ेंगे। यह कोरोना वायरस के कारण हुई आर्थिक कमजोरी के मद्देनजर था।
यह बयानबाजी अर्थव्यवस्था के दो छोरों के बीच की खाई को उजागर करती है- एक गरीब की झोपड़ी और एक उच्च कार्यालय।
वास्तविकता यह है कि गाँव के बाद गाँव में, शायद ही कोई घरेलू या लघु स्तर की इकाई है जिसका स्वामित्व वहीं का हो और जो ऑनलाइन बिकने लायक कुछ भी पैदा करता है।
अगर हम जीडीपी के दृष्टिकोण से आंकड़ों को देखें, तो शायद प्रत्येक इकाई / गांव का सकारात्मक योगदान है। लेकिन एक नेट वैल्यू से देखा जाये तो यह सिर्फ निराशाजनक नहीं है, बल्कि नकारात्मक भी है। इसने पलायन, अमीर को संपत्ति के हस्तांतरण, और प्राकृतिक संसाधनों के शोषण को जन्म दिया है। कोई और सच्चाई नहीं है।
कोला नामक एक मुहावरेदार फार्मूले की रक्षा के लिए कानून और मशीनरी सब कुछ मुस्तैद है, और इसके लिए एक चौंकाने वाला बीमा भी है। यहां तक कि नदियों की भी इसके लिये बलि जा सकती है।
दूसरी ओर, बेल, महुआ, इत्यादि जैसे बहुत प्राचीन व सुलभ व स्वस्थ पेय को किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं मिला है। पूरे प्रतिभाशाली शासन तंत्र को पता नहीं है कि उन्हें मुख्यधारा में कैसे लाया जाए। इसके बजाय, ऐसे उत्पादों को खत्म करने के लिए बोझिल प्रक्रिया और लाइसेंस कानून बनाए गए हैं।
कारण स्पष्ट हैं - सर्वव्यापी संसाधन पर नियंत्रण करना असंभव है। एंट्री बैरियर व नियंत्रण ही व्यवसाय के मंत्र हैं और सरकारें इसमें मदद कर सकती हैं।
ऐसे परिदृश्य में, हम उस झोपढी को अर्थव्यवस्था में ज्यादा हिस्सेदारी तक कैसे ले जायें?
मैं सोचने के लिए एक सरल SWOT विश्लेषण का उपयोग करूंगा:
झोपड़ी उद्यम की कमजोरियां कई हैं:
- एक गरीब परिवार के कौशल, संसाधन, अवसर एक कॉर्पोरेट योजनाकार से बहुत कम हैं। दशकों से इनके मन में गहरे प्रभाव पैदा किए गए हैं तथा इन्होंने किसी भी उद्यम के बारे में सोचना बंद कर दिया है।
- छोटे पैमाने पर प्रति यूनिट लागत ज्यादा आती है।
- अप्रासंगिक शिक्षा के साथ साथ कौशल के क्षरण का मतलब है कि छोटे उद्यम का जोखिम बहुत अधिक है; और लगभग उत्तराधिकार का नियोजन नहीं है। इसलिए विफलता के बढ़े हुए जोखिम से पूंजी की लागत में वृद्धि।
- खपत करने वाले बाजारों की समझ नहीं होना। पुराने समय के विपरीत, उपभोक्ता और झोपड़ी निर्माता के बीच रिश्ता टूट गया है।
फिर भी, हमें निराशा की जरूरत नहीं है। कुटीर उद्यमों में कई नैसर्गिक ताकतें हैं, उनमें से कुछ आधुनिक समय के उपहार हैं:
- प्रत्येक औद्योगिक उत्पाद के समतुल्य खाद्य पदार्थ, कपड़े, रंग, शिल्प और व्यक्तिगत उपभोग के सामान, कुटीर उद्यमों में प्राकृतिक ढंग से बनाये जा सकते हैं। गलत नीतियों के कारण औद्योगिक उत्पादों को प्रकृति और मानव स्वास्थ्य के क्षरण के लिए कभी चार्ज नहीं किया गया। इसलिये अब ये बेहतर प्राकृतिक उत्पाद इतने मूल्यवान और आवश्यक हो गए हैं कि दूरस्थ खपत की लागत अब समस्या नहीं है।
- उपरोक्त उत्पादों का उत्पादन करने का ज्ञान वरिष्ठ आबादी में सर्वव्यापी है।
- कई मामलों में प्रौद्योगिकी एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गई है, जहां छोटे पैमाने पर वितरित ऑपरेशनों की लागत एक बड़े केंद्रिय उत्पादन के समतुल्य है, जैसे संचार की कीमत आदि।
- फिर ऐसी प्रौद्योगिकियां हैं जो अभी भी छोटे पैमाने पर मामूली महंगी हैं, लेकिन ये अब आसानी से लघु उद्योग को उपलब्ध हैं। जैसे लघु सौर कोल्ड स्टोरेज, सटीक उपकरण आदि। ऐसी प्रौद्योगिकियों की लागत को आसानी से लघु उत्पादन मे शामिल किया जा सकता है।
- वित्तीय बाजार अब बहुत तरल हैं यानी वे पूंजीगत लागतों का आकलन और आपूर्ति बहुत तेजी से करते हैं।
इस युग में जो अवसर क्षितिज पर हैं:
- प्रकृति के दोहन की सामाजिक और स्वास्थ्य लागत अब स्पष्ट है। भले ही प्राकृतिक खपत का आधार वर्तमान में बहुत कम है, लेकिन आने वाले दशकों में, भले ही कानून इसका साथ नहीं दें, यह सबसे तेजी से बढ़ता उपभोग खंड है। बाजार में विकास होते ही छोटे पैमाने पर उत्पादन जल्दी से बढाना आसान है।
- उपरोक्त की मदद से, छोटे पैमाने पर कई उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों का उत्पादन किया जा सकता है। यह सोचना कि कुटीर उद्योग सिर्फ निम्न स्तर के या सस्ते उत्पाद ही बनायें, उनकी प्रगति के लिये हानिकारक हैं।
- "औद्योगिक स्केल इकोनॉमिक्स" का आर्थिक लाभ अब संसाधनों के हथियाने तक ही सीमित हो गया है। इसके साथ ही सामाजिक और प्राकृतिक शोषण के लिए कोई लागत या कर नहीं है जो अनुचित है। इस तरह की सभी उत्पाद को आसानी से वितरित कर स्थानीय उत्पाद व खपत में वापस ले जाया जा सकता है।
- औद्योगिक खेती का आर्थिक लाभ भी लुप्त हो गया है। उधर व्यर्थ और प्रदूषित जल की अनुमानित लागत ही एक बहुत बढी वार्षिक अपदा है जो निरंतर स्वास्थ्य लागत के रूप में पहले से ही क्षितिज पर है। इसलिए, हम जल्दी से भारत को प्राकृतिक खेती और दवा की टोकरी बनने की स्थिति में हैं। लेकिन यह गांवों में ही सहायक इकाइयों की स्थापना के साथ ही संभव हो सकता है, क्योंकि प्राकृतिक खेत औद्योगिक खेतों की तुलना में अलग तरह से काम करते हैं।
- नियत नीतियों के साथ, घरेलू खपत व उत्पाद का बहुत-सा हिस्से का विकेन्द्रीकरण व प्राकृतिकरण हो सकता है। यह ग्राम इकाइयों, बेहतर पर्यावरण और कम सामाजिक तनाव के साथ साथ आर्थिक समानता को भी बढावा देगा ।
इस पथ पर चलने में कई बाधाएॅ भी हैं:
- परिवर्तन की कोई भी शुरुआत स्थापित निहित हितों द्वारा बाधित होने का खतरा है।
- जबकि प्रौद्योगिकी, वित्तीय और कोर बुनियादी ढांचे और खपत पैटर्न इस पथ पर कदम रखने के लिए तैयार हैं, कानूनी बाधाएं बनी हुई हैं। कानून या तो कुटीर इकाइयों के लिये बहुत दमनकारी हैं, या प्रक्रिया में बहुत बोझिल हो गए हैं। उदाहरण के लिए, एक साधारण साबुन लाइसेंस लेने के लिए, रसायन विज्ञान के साथ स्नातक की आवश्यकता होती है। हर उत्पाद को ऐसै नियम कानून से घेरा हुआ है जिनको पालन कर पाना आज के ग्रामीण परिवेश में संभव नहीं हैं। इस तरह की पुरातन और बोझिल आवश्यकताओं के साथ-साथ ड्रैकोनियन दंड और रिपोर्टिंग प्रक्रियाओं को पूरी तरह से दूर किया जाना है। वित्तीय रिपोर्टिंग में भी इसी तरह की सादगी की आवश्यकता है।
- सरकारों को फिर से कल्पना करनी होगी कि करों को कैसे व्यवस्थित किया जाए, क्योंकि इस तरह के दिशा-निर्देश से स्थानीय उत्पादन व खपत को बढ़ावा मिलेगा। इससे जीडीपी और संबंधित लेनदेन कम हो सकते हैं। साथ ही सरकार पर भी कल्याण खर्च के लिए बहुत कम बोझ पढेगा।
-पुराने समय में जब धन अधिक वितरित था, तब पंचायत या इसी तरह की इकाइयां ही कर एकत्रित करती थीं और स्थानीय स्तर के योजना निर्माता थे। वितरित कर प्रणाली भी एक नई अवधारणा नहीं है, हालांकि डरपोक राजनेता और नौकरशाह इसके विकेन्द्रीकरण से बचते हैं क्योंकि यह बेईमान उपयोग को भी सीमित करता है।
बाजार, अर्थव्यवस्था और तकनीकी की अपनी गति है। वे आगे बढ़ गए हैं और अंतिम व्यक्ति तक उपभोग मूल्य का हिस्सा लाने का अवसर पेश करते हैं। प्रकृति तो किसी की बाध्य नहीं - उसकी इच्छा ही सर्वोपरि होगी।
इसलिये अब विधायिका को अपना सही कर्म करना है। उनका मंत्र सबको सक्षम करना है न कि उलझाना या नियंत्रित करना।
हम पारंपरिक तरीकों पर भरोसा करें, उनका आधुनिकीकरण करें, उनका परीक्षण करें, उन्हें मान्यता दें, लेकिन उन्हें अवरुद्ध न करें। यह अनिवार्य रूप से भारत को प्राकृतिक और वितरित धन के साथ सुढृग कर देगा।
शिक्षा:
एक अलग आर्थिक प्रतिमान के लिए एक अलग शिक्षा पद्धति भी आवश्यक है। लगभग उन्नत देशों की तरह, या हमारे पुराने समय की तरह, शिक्षा का मूल ध्यान प्रासंगिक कौशल पर होना चाहिये। कौशल प्राथमिक भी हो सकते हैं जैसे लेखन आदि और उच्चतर भी जैसे विश्लेषण। परंतु यह सामूहिक दिशा और सामूहिक परीक्षणों पर नहीं होगा।
इसका मतलब यह है कि घर प्री-प्राइमरी स्कूल होगा और उसको सामुदायिक कार्यक्रमों द्वारा मदद मिलेगी जहाँ सीखने का काम चल रहा है। इसका ध्यान आंतरिक विकास, काम करने और सीखने की आदतों पर होगा।
तकनीक पहले से ही मौजूद है जहां गहरे प्रायोगिक पाठ्यक्रमों के अलावा, अब किसी भी तरह से प्रवेश को सीमित करने की आवश्यकता नहीं है, चाहे वह आरक्षण हो या प्रवेश। लोगों को प्रवेश दें, लेकिन केवल योग्य और समर्पित विद्वान ही अगले चरण तक जायें। पहले से ही सीए जैसे कुछ पाठ्यक्रम उस पैटर्न का पालन करते हैं।
इसलिए किसी भी अवसर या आकांक्षाओं से इनकार नहीं किया जाये, लेकिन व्यक्ति को खुद की क्षमता और रुचि के अनुसार सबसे अच्छा पाठ्यक्रम तय करने दें। हमें आधारभूत संरचना बनाने की आवश्यकता होगी ताकि अवसर सर्वव्यापी हो।
स्वास्थ्य:
गांधीजी ने प्रत्येक घर को एक प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली के रूप में सोचा था, अब इसे साकार किया जाना है। वर्तमान केंद्रीकृत स्वास्थ्य सेवा प्रणाली न केवल बहुत महंगी है, बल्कि बहुत शोषक भी है।
यह तर्क दिया जाता है कि आधुनिक चिकित्सा अनुसंधान को इस समग्र स्वास्थ्य प्रणाली से ही पोषित करना पढता है और उसे बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती है। लेकिन तथ्य यह है कि वास्तविक प्रयोगशालाओं के सभी अनुसंधान बजट जोढने पर भी यह स्वास्थ्य के नाम पर चल रही मुनाफाखोरी के सामने क्षीण ही है।
इस परजीवी उद्योग से सरकारों और जनता को मुक्त करने के एवज में एक छोटे से शुल्क के द्वारा वास्तविक अनुसंधान को आसानी से वित्त पोषित किया जा सकता है।
इसके लिए रास्ता प्रासंगिक है कि घरों में प्रासंगिक शिक्षा, प्राकृतिक और प्राथमिक इलाज और जीवन शैली का मजबूत प्रशिषण और प्राकृतिक विविधता वापस मिले। एक तरह से, स्वास्थ्य का मुद्दा एक वितरित अर्थव्यवस्था और शिक्षा के अन्य अवयवों के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है।
यह निश्चित रूप से प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा बोझ को कम करेगा और यहां तक कि उन मामलों को भी कम करेगा जिन्हें उन्नत शल्य चिकित्सा या चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता होती है।
दूसरी तरफ चिकित्सालयों में भीढ़ और इसलिए मांग-आपूर्ति का अंतर अधिक होने के कारण, गरीब और मध्यम वर्ग को कुचला जा रहा है।
शहरी जीवन:
मेरे विचार में, शहरी, ग्रामीण और वन जीवन का अलगाव, एक भयानक त्रुटि थी। यदि हम प्रकृति के सभी अन्य जीवों को देखें तो लगेगा कि मानव की विशाल शहरी आबादी को प्रकृति वंचित जीवन जीने को मजबूर नहीं होना चाहिये।
उधर ग्रामीण क्षेत्रों को औद्योगिक खाद्य उत्पादन क्षेत्र नहीं होना चाहिए, वह भी अर्थव्यवस्था में सबसे कम मूल्य पाने वाले उत्पाद । और जंगलों को अलग थलग करके मानव को उनकी समझ से दूर नहीं करना चाहिये था।
मैं एक दशक से भी अधिक समय तक एक घने जंगल में रहा हूँ; इसलिए मैं स्वयं के अनुभव से बता सकता हूं। यहाॅ हमेशा ही एक शहरी जीवन की तरह भीड़, मॉल और आवागमन है, बस उनको देखने समझने की दृष्टि चाहिये।
आज भी अधिकांश छोटे शहर जो देश भर में व्यापक हैं, वे अभी भी अच्छे शहरी मॉडल हैं।
एकीकृत शहरी-ग्रामीण-वन मॉडल तो उन्हीं आर्थिक, शिक्षा और स्वास्थ्य मॉडल के साथ चलेगा जो इस जीवन शैली के साथ मेल खाते हैं।
विकास का अर्थ:
यह वह जगह है जहां हमें मूल्यों, नैतिकता और भारत दर्शन (फिलसफी) पर काम करना होगा। सदियों से, विकास का मतलब हमारे लिए मानवीय प्रगति है। सबसे पहले, इसका मतलब है कि हम भारत के रूप में जो कुछ भी मिला है, उसका संरक्षण और सुधार करते हैं। इसके बाद इसका मतलब है कि विज्ञान और चिकित्सा, कला आदि में प्रगति।
इसका मतलब यह नहीं है कि जीवन और समाज में उपयोग की जाने वाली हानिकारक वस्तुओं का असीमित भोग हो। दोषपूर्ण मनुष्य आते और जाते रहेंगे।
परंतु एक गहरी सभ्यता उनके लालच और भय को और परजीवी जीवन जीने की प्रवृत्ति की पहचान करने की क्षमता रखती है, और उन्हें मानव प्रगति का प्रतीक नहीं बनने देती है।
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उपरोक्त पांच पहलू संक्षेप में परिभाषित हैं तथा परिवर्तन की महत्वपूर्ण दिशाओं को विचाराधीन करते हैं। इन पर और चिन्तन से भारत दर्शन को सर्वव्यापी करने में मदद मिलेगी, और साथ में हमारे सपनों के भारत की स्थापना में मदद मिलेगी।
ऐसे विश्वास के साथ आपको इसे समर्पित करता हूॅ।